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________________ खींवसरा खींवसरा गौत्र की उत्पत्ति उज्जैन के पवार राजा खीमजी एक बार भाटी राजपूतों से हार गये, तब इनको जैनाचार्य जिनेश्वरसूरिजी ने शत्रु वशीकरण मंत्र दिया। इससे शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर इन्होंने खीवसर नामक गाँव बसाया। कुछ समय तक इनका सम्बन्ध राजपूतों से रहा। पश्चात् इनके पौत्र भीमजी को दादा जिनदत्तसूरिजी ने ओसवाल जाति में मिलाया । कहीं २ खींवजी के वंशज शंकरदासजी को जैन बनाये जाने की बात पाई जाती है। खींवसर में रहने के कारण यह परिवार खींवसरा कहलाया । सेठ हजारीमल बनराज मूथा, मद्रास इस परिवार ने खीवसर से बीकानेर, नागौर आदि स्थानों में होते हुए जोधपुर में अपना निवास बनाया। यहाँ आने के बाद खोवसरा नाथाजी के पुत्र भमयराजजी तथा पौत्र अमीचन्दजी राज्य के कार्य करते रहे, अतएव इन्हें “मूथा" की पदवी मिली। अमीचन्दजी के पुत्र सीमलजी तथा मानोजी प्रतिष्ठित भ्यक्ति हुए । इन बन्धुओं को जोधपुर महाराज अभयसिंहजी ने संवत् १८०० में चौकड़ी गाँव में एक बेरा तथा १२५ बीघा जमीन जागीर में दी। इसी तरह मानाजी को संवत् १८०९ की फागुन सुदी के दिन महाराजा रामसिंहजी ने बेरा और २० बीघा जमीन जागीरी में इनायत की। थोड़े समय बाद मानाजी नाराज होकर पूना चले गये। तब महाराजा जोधपुर में रुक्का भेजकर इनको वापस बुलाया उस समय रीयां से बलूदा ठाकुर इनको अपना “पगड़ी बदल भाई" बनाकर बलंदे ले गये। तब से यह परिवार बलूदा में निवास कर रहा है। मूथा सीमलजी के परिवार में इस समय मूथा गणेशमलजी चिंगनपैठ में, मूथा फतेराजजी तथा धरमराजजी बंगलोर में और चम्पालालजी जालना में व्यापार करते हैं। मूथा मानोजी के मालजी, सिरदारमलजी तथा धीरजी नामक पुत्र हुए। इनमें सिरदोरमलजी के परिवार में सेठ गंगारामजी हैं तथा धीरजी के परिवार में विजयराजजी और तेजराजजी मूथा है। मुथा धीरजी के बाद उदयचन्दजी तथा उनके पुत्र हंसराजजी खींवसराहुए । सेठ हंसराजजी के हजारीमलजी तथा बख्तावरमलजी नामक २ पुत्र हुए। सेठ हजारीमलजी मूथा-आप संवत् १९०७ में बलूदे से पैदल राह चलकर जालना आये । बहाँ से संवत् १९१२ में बंगलोर आये और वहाँ दुकान स्थापित की। भाप बड़े प्रतापी तथा साहसी पुरुष हुए । बंगलोर के बाद आपने संवत् १९२५ में मद्रास में अपनी दुकान खोली। तथा इस फर्म के व्यापार में आपने उत्तम सफलता प्राप्त की। संवत् १९४० में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके बनराजजी तथा चन्दनमलजी नामक दो पुत्र हुए। सेठ बनराजजी मूथा का जन्म संवत् १९२७ में हुआ।
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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