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________________ राजनैतिक और सैनिक महत्व वज्र तुल्य हृदय भी द्रवित हो उठा और जिसने विपत्ति के लहराते हुए दरिया में भी अपने भापको रक्षित रखा था उसने उपरोक्त घटना के सम्मुख प्रात्मसमर्पण कर दिया। महाराणा ने इसी समय मेवाड़ को छोड़ने का रढ़ संकल्प कर लिया और उसे छोड़ने की तैयारी करने लगे। इस समय महाराणा के प्रधान के पद पर ओसवाल जाति के कावड़िया गौत्रीय वीरवर भामाशाह प्रतिष्ठित थे । जब भामाशाह ने अपने स्वामी के देश त्याग की बात सुनी और यह भी सुना कि धनाभाव के कारण ही वे देश त्याग कर रहे हैं तो उनसे न रहा गया और वे अपने जीवन भर के सारे संचित द्रव्य को लेकर महाराणा के चरणों में उपस्थित हुए। महाराणा के पैर पकड़ कर उन्होंने उनसे वह धन ग्रहण करने की ओर देश न छोड़ने की प्रार्थना की । जब महाराणा को उस धन के ग्रहण करने में कुछ हिचकिचाहट होने लगी तो उन्होंने अत्यन्त नम्रता के साथ महाराणा से कहा कि “अन्नदाता यह शरीर और यह धन यदि अपने स्वामी और अपने देश के लिये काम माय तो इससे बढ़कर इसका सदुपयोग दूसरा नहीं हो सकता । इसे आप अपना ही समझें और निःसंकोच हो ग्रहण करें। कर्नल जेम्स टॉड के कथनानुसार वह धन इतना था कि जिससे २५ हज़ार सैनिकों का १२ वर्ष तक निर्वाह. हो सकता था। कहना न होगा कि इस विशाल सहायता के पाते ही राणा प्रताप ने अपनी बिखरी हुई शकि को पटोर कर रणभेरी बजा दी और बहुत शीघ्र अपने खोये हुए राज्य के बहुत बड़े हिस्से को (मादलगद और चितौड़ को छोड़कर सारा मेवाड़) पुनः अपने अधिकार में कर लिया। इन लड़ाइयों में भामाशाह की वीरता के हाथ देखने का भी महाराणा को खूब अवसर मिला और उससे वे बड़े प्रसन्न हुए। इसी समय से महात्मा भामाशाह की गिनती मेवाड़ के उद्धार कर्ताओं में होने लगी। इस घटना को आज प्रायः साढ़े तीन सौ वर्ष होने को भा गये मगर आज भी मेवाड़ में भामाशाह के वंशज उनके नाम पर सम्मान पा रहे हैं। केवल मेवाड़ में ही नहीं प्रत्युत सारे भारतवर्ष के इतिहास में इस महापुरुष का नाम बड़े गौरव के साथ अक्षित किया जाता है। मेवाड़ राजधानी उदयपुर में भामाशाह के वंशजों को पंच पंचायती और अन्य विशेष अवसरों पर सर्व प्रथम गौरव दिया जाता है। कुछ वर्ष पूर्व जाति के लोगों ने भामाशाह के वंशजों की इस परम्परागत प्रतिष्ठा को दूर करने की कोशिश की थी मगर जब यह बात तत्कालीन महाराणा शम्भूसिंहजी को मालूम हुई तो उनको भामाशाह के वंश गौरव की रक्षा के लिये एक फरमान निकालना पड़ा था जो इस प्रकार है। ७E
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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