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________________ संचित अभिज्ञता तथा जन्मगत बैराग्य भावना होनेसे भीखणजीके हृदयमें संसार त्याग कर साधु मार्ग स्वीकार करनेकी महताकांक्षा तीन रूपसे उत्पन्न हुई। इस वैराग्य भावना और साधु होनेकी महताकांक्षाने इतना जोर पकड़ा कि स्वामी भीखणजी ने गृहस्थाश्रममें सस्त्रीक प्रत लिया कि वे सर्वथा शील पालन करेंगे, याने स्त्री प्रसंग न करेंगे। इसके साथ-साथ उन्होंने एकान्तरा उपवास करना भी शुरू किया। यह एक अपूर्व संयोग है, कि इसी समय उनकी पत्नी का भी देहावसान हो गया। भीखणजीका वैराग्य भाव अब अवाध गतिसे बढ़ने लगा और पूर्ण यौवनावस्था में होते हुए भी उन्होंने घरवालोंकी एक न सुनी और पुनर्विवाह करनेका सौगंध ले लिया। एवं यथाशीघ्र दीक्षित होनेकी इच्छा प्रकट की। भीखणजीके पिताका देहावसान इससे पहिले ही हो चुका था केवल माताकी आज्ञा ( अनुमति ) लेना ही दीक्षाके लिये आवश्यक था। ___ भीखणजी जब गर्भावस्थामें थे तब उनकी माता दीपां बाईने सिंहका स्वप्न देखा था इससे उनकी धारणा थी कि उनका पुत्र अवश्य ही कोई प्रतिष्ठित महापुरुष होगा। इसलिए वे अपने एकमात्र पुत्रसे महती आशाएँ रखती थीं। भीखणजीको दीक्षाके लिए अनुमति लेनेका प्रसंग आया तब माताका स्नेह उमड़ आया और वह सिंह-स्वप्न जो उनके पुत्रकी भावी महानताका सूचक था उनकी आंखोंके सामने नाचने लगा। जो माता अपने पुत्रके लिए उच्चाशा पोषण कर रही थी और उसके भावी ऐश्वर्यकी कल्पना कर फूली न समाती थी-उस माताके सामने जब पुत्रके संसारत्यागका प्रस्ताव आया तब तो अपनी सारी आशाएँ निष्फल होतो देख कर माताका स्नेहमय हृदय और भी विचलित हो गया और अपने स्वप्रका हाल बताते हुए अनुमति देनेसे अस्वीकार कर दिया। दीपां बाईकी इस बातको सुनकर रुघनाथजीने उन्हें समझाते हुए कहा कि निश्चय ही उनका स्वप्न सत्य सिद्ध होगा और गृहत्यागी मुनि होने पर भी भीखणजी सिंह की तरह विजयी होकर गंजेंगे। दीपांबाईको रघुनाथजीके इस उत्तरसे
SR No.032674
Book TitleJain Shwetambar Terapanthi Sampraday ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Shwetambar Terapanthi Sabha
PublisherMalva Jain Shwetambar Terapanthi Sabha
Publication Year
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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