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________________ प्रचारक तथा विज्ञान-वेत्ता आदि हुए हैं , उन्हें जब तक पूर्ण आत्म-तृप्ति . न हुई अपने लक्ष्य तत्त्वोंपर गवेषणा करते रहे हैं। स्वामी भीखणजीके साथ मी ठीक यही हुआ और जिस सत्यकी खोजमें वे थे, वह जब तक उनके हाथ न आया तब तक वे उसके अनुसंधानमें लगे ही रहे। जैन धर्म एक समय बहुत ही उन्नत धर्म था और राज धर्म होनेसे वह भारतव्यापी भी हो चुका था। एक समय था जब जैन धर्मकी विजय बैजयन्ती चारों ओर फैली हुई थी परन्तु राजनैतिक उलट फेसेंके कारण उसके अनुयायी क्रमशः ह्रास हो गये और धर्मप्रचारक शिथिल हो गये। काठमें घुन लग जाने पर जिस प्रकार वह सहसा दूर नहीं होता, उसी प्रकार पतन होने पर उत्थानके लिये एक महती शक्तिकी आवश्यकता होती है। जैन धर्मके अभ्युदयके लिये भी समय समय पर महामना सुधारक धर्मप्रचारकों द्वारा प्रयत्न होते रहे हैं। सं० १५३० के आस-पास श्री लंका मेहता नामक एक सद्गृहस्थ हुए जिन्होंने जैन शास्त्रोंके वास्तविक रहस्य और अर्थका प्रचारकरना शुरू किया,परन्तु उनके कुछ समय बाद उनके अनुयायी कालके प्रभावसे शिथिलाचारी होते गये । और उनकी प्ररूपणाभी क्रमशः विकृत हो गई। बादमें लवजी नामक एक साधुने फिर शुद्ध प्ररूपण करने का प्रयत्न किया परन्तु वे भी शास्त्रीय आदेशोंको सर्वथा शास्त्रीय रूपमें प्रचार व पालन न कर सके। साधुके निमित्त बने हुये मकानातमें रहने वालेको स्थानक वासी कहते । ऐसा औद्देशिक मकानोंमें रहना जैन शास्त्रमें मना था। अतः लवजीने स्थानक वास छोड़ दिया और फुटे-टुढे मकान अर्थात् दुढोंमें रहना शुरू किया। इसलिए कालक्रममें इनका. सम्प्रदाय 'ढुंढ़िया' कहलाने लगा। धोरे-धीरे ढुंढियोंमें २२ शाखायें हो गई और हर एक शाखा वाले एक दूसरेसे अलग रहते और कुछ फेरफारके साथ धर्म-प्रचार करते रहे। इन्हीं २२ सम्प्रदायकी एक शाखाके आचार्य रुघनाथजीको भीखणजीने अपना प्रथम दीक्षा गुरु बनाया था। आरम्भसे हो इस तरह विभिन्न धर्म-सम्प्रदाओंके संसर्गमें आनेसे
SR No.032674
Book TitleJain Shwetambar Terapanthi Sampraday ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Shwetambar Terapanthi Sabha
PublisherMalva Jain Shwetambar Terapanthi Sabha
Publication Year
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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