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________________ कुविवाह शास्त्रमर्यादा से विच्छिन्न जो मनभावना पर (स्वेच्छया) विवाह किया जाय तथा नित्य वैदिक स्मार्त क्रिया कर्म को छोड़ने से न केवल पतन ही होता है अपितु संस्कृति का भी नाश हो जाता है। मन ने राजधर्म को और व्यवहार को विस्तार से लिखा है। मन के बताये मार्ग पर चलने से मनुष्य व्यवहारकुशल और पारलौकिक सुख का भागी भी होता है । मनु ने राज्य संचालन के मार्ग को सरल बनाया परन्तु राज्य-नियम व्यवस्था बनाने में यह कहा है एकोऽपि वेदविद्धर्म यं व्यवस्येद् द्विजोत्तमः। स विज्ञेयः परो धर्मो नाज्ञानामुदितोऽयुतैः॥ अज्ञानी बहिर्मुखदृष्टिवाले दस सहस्र मत से भी एक वेद्विद् तपस्वी मतग्राह्य है। महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी चत्वारो वेद धर्मज्ञाः पर्षत्त्रविद्यमेववा। सा ब्रते यं स धर्मः स्यादेको वाध्यात्मवित्तमः ॥ अ० १ श्लो०६ अध्यात्मनिष्ठा ही राज-विधान निर्मात्री संसद मानी है अतः देश पर शासन करने वाले व्यक्ति के लक्षणों में त्याग वैराग्य और सद्गुणशीलता का होना शासक में परमावश्यक है। मन याज्ञवल्क्य की इस प्रकार की पर्षद् संसार में समता का प्रसारण कर सकती है। आत्मनिष्ठा जबतक न हो तब तक हम सब समान हैं यह कल्पना तो बन्ध्यापुत्रवत् है। मनु ने स्मृति की समाप्ति में कहा भी धर्मस्य परमं गुह्यं ममेदं सर्वमुक्तवान् । सर्वमात्मनि सम्पश्येत्सच्चासच्च समाहितः॥ धर्मशास्त्र का परम सिद्धान्त यही है कि सब प्राणिमात्र में अपने को समझे याज्ञवल्क्य ने भी यही कहा है--- ___"अतो यदात्मनोऽपथ्यं परेषां न तदाचरेत् ।" जो बात तुमको दुःखदायी हो वह बात कभी दूसरे जीव की मत करो यही धर्म मनुष्य का है। याज्ञवल्क्य ने संस्कार विधि दाय विभाग और पुत्रोत्पत्ति को भी धर्मशास्त्रीय व्यवस्था से बांधा था
SR No.032667
Book TitleSmruti Sandarbh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaharshi
PublisherNag Publishers
Publication Year1988
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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