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________________ महाराजा सम्प्रति के शिला लेख उस समय अपने काम करने के ढंग को अर्थात् शोध का मूल पाया ही दोष युक्त है, इस बात को निष्पक्ष होकर तथा उस नवीन बात को संभव मानकर उसे सुधारने के बदले वे तुरन्त ही यह कहने लग जाते हैं कि हिंद के प्राचीन काल की जो अनेक धर्मों की पुस्तकें लिखी गई हैं वे चाहे एक दूसरे वृत्तान्तों से मिलते हुए भले हों; अपने बुद्धि गम्य न होने के कारण उन सब को क्षेपक और काल्पनिक और मात्र दन्तकथा ही बतलाते हैं और उन्हें वे अविश्वनीय बतला कर ऐतिहासिक तथ्यों के लिये व्यर्थ हैं, बतलाते हैं । इस बात से कमसे कम इतना तो अवश्य सिद्ध हो जाता है कि उनकी रीति में कुछ न कुछ सुधारने का स्थान अवश्य है। जिस मुख्य घटना से सारा इतिहास चुना गया है और जो ऊपर कहे हुए अनुसार जिस पर कुछ शंका है वह है ईसा के पूर्व ३२७ के साल की घटना । जिस समय ग्रीक बादशाह महान् सिकंदर भारत पर चढ़ आया था और सिंध के तट पर पड़ाव डाला हुआ था उस समय मौर्य वंशीय नवयुवक राजा किंवा कुमार उससे मिला था और उस समय के मौर्यवंशी सम्राट् की राजधानी पाटलीपुत्र में जो ग्रीक राजदूत मेगास्थानीज़ रहता था उसने जो कुछ टूटी फूटी बातें अपनी डायरी में लिख रखी थीं, उसमें सेंण्डोकोट्स लिखा था, उसे ग्रीक इतिहास वेत्ता-लेखक मि० जस्टिन और स्ट्रेबो ने बिना किसी साक्षी, प्रमाण आदि दिए हुए ही सेंण्ड्रोकोट्स को चन्द्रगुप्त मान लिया था। उक्त घटना कोजोसाल ई० पूर्व ३२७ दिया गया है उसके सम्बन्ध में तो कुछ भी शंका नहीं है, कारण कि वह अनेक प्रमाणों से सिद्ध है किन्तु सेन्डोकोट्स चन्द्रगुप्त ही है इस बात को मानते हुए जरा हिच-किचाहट सी होती है। हम सब गत डेढ़ दो सौ वर्षों से ब्रिटिस सरकार या उसके संरक्षित देशी राज्य की ही शालाओं में पढ़ २ कर बाहर आए होने
SR No.032648
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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