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________________ गरसूरि साथ में थे और उन्होंने ७००० श्लोक वाली व्याकरण की रचना वहाँ हो की थी ये कोई एक दो मास का काम नहीं था पर इस प्रकार व्याकरण का नया प्रन्थ रचने में बहुत समय लगा होगा। दूसरा पाटण से जावलीपुर आना भी असंभव है कारण, जिस समयजिनेश्वरसूरि पाटण गये थे तो वहाँ चतुर्मास भी किया था अब खरतरों के लिये एक मार्ग हो सकता है कि जैसे दुर्लभराजा भूत होकर दो वर्षों के बाद खरतर विरुद देने को पाने की कल्पना के साथ जिनेश्वरसूरि ने दो रूप बना कर आप जावलीपुर में रहे और दूसरे रूप को पाटण भेजने की कल्पना कर लें तो आकाशकुसुम की तरह खरतर विरुद मिलना साबित हो सकता है और इसके लिये किसी प्रमाण की आवश्यकता भी नहीं रहेगी। ___सारांश यह है कि न तो वि० सं० १०८० में पाटण में राजा दुर्लभ का राज था और न सं० १०८० में जिनेश्वरसूरि पाटण गये थे और न खरतरों के किसी प्राचीन ग्रन्थ में इस बात का उल्लेख हो मिलता है । इस हालत में जिनेश्वरसूरि का चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ और खरतर विरुद की तो बात ही कहाँ रही ? पाठक स्वयं सोच सकते हैं कि प्रतिवादियों से शास्त्रार्थ कर एक नामांकित राजा से विरुद प्राप्त करना यह कोई साधारण बात नहीं है कि जिस विरुद को वे विजयिता स्वयं एवं उनकी सन्तान भूल जायं और बाद ३०० वर्षों से वह विरुद प्रकाश में आवे । देखिये जनाचार्यों ने जिन जिन राजा महाराजाओं से ,जी जो विरुद प्राप्त किये है वह उनके नाम के साथ उसी समय से प्रसिद्ध हो गये थे जैसे :
SR No.032637
Book TitleKhartar Matotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala
Publication Year1939
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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