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________________ ( ३४ ) । यह तो एक नमूना मात्र ही बतलाया है पर इस प्रकार तो खरतरों ने कई अनर्थ किये हैं। प्रवचन परीक्षा नामक ग्रन्थ में उपाध्याय धर्मसागरजी महाराज लिखते हैं कि: "जेणं जिणदत्त मए, पुराण पाढणमण्णहा करणे । परलोअ भयभीआ, अज्जवि दीसंति वेसहरा ॥ ४६ ॥ अर्थात् जिनदत के मत में पुराणे पाठों को चुराने एवं रहो. बदल करने वाले आज भी कई वेषधारी विद्यमान हैं । यह बात उपाध्यायजी ने केवल इधर उधर की सुनी हुई बातों के आधार पर ही नहीं लिखी है, पर अपने नाडोल ( नारदपुरी) के भंडार की पुराणी प्रतियों से जैसलमेर की प्रतियों का मिलान करके ही लिखी है। पर जब खास गणधर भगवान् के आगमों को भी अन्य था प्ररूपने में खरतरों को भय एवं लज्जा नहीं है तो दूसरों का तो कहना ही क्या है ? अतः खरतर मत चौरासी गच्छों में गच्छ नहीं पर उत्सूत्रवादी मतों में एक मत है जो उपरोक्त प्रमाणों से साबित हो चुका है। प्रश्न-यदि आपके कथनानुसार विधिमार्ग एवं खरतरमत उत्सूत्र से ही पैदा हुआ है तो फिर इस मत की इस प्रकार वृद्धि होना और हजारों लोगो का इसको मानना और श्राज सात पाठ सौ वर्षों से अविच्छिन्नरूप से चला आना कैसे माना जा सकता है। . उत्तर-इसके लिये पहिले तो आपको 'खरतरों की बातें' नाम की पुस्तक मंगवा कर पढ़ना चाहिये जो श्रीमान् केसरचन्दजी चोरडिया की लिखी हुई है बस! आपका समाधान स्वयं हो जाय. गा। दुसरे मत चलना तथा उसकी वृद्धि होना या हजारों लोगों का मानना और सात आठ सौ वर्ष तक चला आना यह सब
SR No.032637
Book TitleKhartar Matotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala
Publication Year1939
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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