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इन सब उद्धरणों से स्पष्ट है कि श्रमण संस्कृति में मगध को पवित्र माना गया है। उसे श्राय- अर्थात् श्रेष्ठ लोगों का जनपद कहा गया है। मगध में जैन-ज्ञान और प्राचार की रक्षा भी मानी गई है । इस समय मगध अच्छी तरह से बस चुका था और आर्य राज्यों और उपनिवेशों की स्थापना हो चुकी थी। सुशासन और सुव्यवस्था से चोर डाकुओं से रक्षा
और सामाजिक प्राचार की सुविधा थी। ब्रात्य और मगध
अथर्व वेद में व्रात्यों का प्रिय धाम प्राची दिशा को बताया गया है। यहाँ मगध की ओर संकेत है । श्रमण संस्कृति में व्रत धारण करने के कारण श्रमणों को व्रात्य कहा गया है जैन-निग्रन्थवात्य थे। वे वेदों को प्रमाण नहीं मानते थे । वे याग-यज्ञ और पशु-हिंसा का विरोध करते थे। तपस्या से आत्मशोधन में विश्वास करते थे। इसीलिए उनको व्रात्य कहा गया है। ये व्रात्य देश के अन्य भागों में भी रहते थे। जैन अनुश्रुति के अनुसार जैनों के प्रथम तीर्थकर ऋषभ देव कोसल देश के राजा थे। नेमिनाथ सूरसेन प्रदेश के रहने वाले थे। पार्श्वनाथ काशी के राजकुमार थे। इस प्रकार व्रात्य तो देश के और भागों में भी फैले थे। पर व्रात्यों की पुण्यभूमि मगध को ही कहा गया है । इसका यह मतलब हुआ कि व्रात्यों की साधनाभूमि मगध प्रदेश था। और जैन अनुश्रुति के अनुसार जैनों के चौबीस तीर्थंकरों में से -बीस का निर्वाण यहीं हुआ था। इसी से यह स्पष्ट होता है कि वैदिक याग-यज्ञों को अमान्य कर व्रत और तपस्या पर जोर देने वाले व्रात्यों का पीठस्थान मगध था। इसीलिए अथर्व वेद में व्रात्यों का प्रियधाम प्राची दिशा को कहा गया है और मागधों को उनका मित्र बताया गया है। लाट्यायन श्रौतसूत्र (८, ६, २८) और कात्यापन श्रौतसूत्र (२२, ४ २२) में इस बात का उल्लेख है कि व्रात्य धन या तो पतित ब्राह्मण को दिया जाय या मगध के ब्राह्मण को दिया जाय । इससे यह