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________________ 'जिनगुण भक्ति रत चित्त वेधक रस गुण-प्रेम; सेवक जिनपद पामशे, रसवेधित अय जेम ।' - पू. देवचन्द्रजी प्रभु-गुणों का प्रेम ही वेधक-रस हैं । उसका स्पर्श होते ही इस काल में भी पामर परम बन सकता हैं । पत्थर या लोहे जैसी आत्मा प्रभु-भक्तिमें मशगुल बनती हैं, तभी वह स्वयं प्रभु बन जाती हैं । ध्येयमय ध्याता बन जाय. तभी समाधि आती हैं । ध्यानमें तीनों की भिन्नता होती हैं, किंतु समाधिमें तो तीनों (ध्याता, ध्येय, ध्यान) एक बन जाते हैं । यह भक्ति का रंग लगाने जैसा हैं । हमारी योग्यता के अनुसार भले इसका फल मिले, परंतु मिलता हैं जरूर । (११)लोगनाहाणं ।। विश्वमें भगवान सर्वश्रेष्ठ नाथ हैं । भगवान जैसे नाथ मिलने पर भी हम अनाथपना क्यों अनभव कर रहे हैं ? भगवान तो नाथ बनने के लिए तैयार हैं, परंतु हम संपूर्ण शरणागति नहीं स्वीकारते हैं । नाथकी जवाबदारी हैं, जो वस्तु आपमें न्यून हो उसकी पूर्ति करें । किसी भी काल किसी भी क्षेत्रमें भगवानकी योगक्षेमकी जवाबदारी हैं । भगवान कभी ना नहीं ही कहते । फोन से इष्ट व्यक्ति का संपर्क हो या न भी हो, परंतु भगवान को याद करो तो वे आते ही हैं, कभी ना नहीं कहते । आपका ये योगक्षेम करते ही हैं । अनुत्तर विमान के देव प्रश्न करते हैं उसी समय भगवान उनको जवाब देते हैं । पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : वे क्यों नीचे नहीं आते ? पूज्यश्री : उनका ऐसा कल्प हैं । ऐसे उपकारी, करुणाके सागर भगवान हमको नाथके रूपमें मिल गये, यह हमारा कितना बड़ा सौभाग्य गिना जाय ? फिर भी भगवानको मिलने का समय हमको कम मिलता हैं । अभी हरिभद्रसूरिजीके शब्दोंमें नाथका अर्थ देखते हैं । भगवान भव्यजीवों के नाथ हैं। संसारी जीवों को सतानेवाले - (३४ 0000wwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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