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________________ पूछ । बाद में नहीं ।' बुद्ध के पास जानेवाले को एक व्यक्तिने कहा । * हम दूसरों को प्रभावित करने के लिए ज्यादा करके प्रवृत्ति करते रहते हैं । मैंने कितना अच्छा सोचा ? मैंने कितना अच्छा कहा ? आप ऐसे ही विचार रहे होते हो । कोई भी विचार मौलिक नहीं होता । दूसरों के विचार पर सिर्फ आप दस्तखत कर देते हो । 'देह-मन-वचन पुद्गल थकी, कर्मथी भिन्न तुज रूप रे' उपा. यशोविजयजी, अमृतवेल विचार पौद्गलिक हैं । आप पौद्गलिक नहीं हैं । विचार पराई घटना हैं । अनुभूति ही स्वकी हैं । कौन से दरवाजे से कौन सा विचार आया वह ज्यादा करके हम जानते नहीं हैं । मंदिरमें विचारको छोड़कर जाते हो ? विचार की गठरीको बाहर की चौकी पर रखकर मंदिरमें जाओ । ध्यानकी प्रारंभिक भूमिकामें मन विचार से भरा हुआ हैं, उसकी देखभाल मिलती हैं । विणयमूलो धम्मो संसार के ताप, उत्ताप और संताप ये त्रिविध दुःखसे मुक्त करानेवाला एक मात्र आत्मज्ञान हैं । आत्मा ज्ञानरहित नहीं हैं, किंतु जीवको ऐसा सुखसंपन्न, दुःख-रहित, कोई अचिंत्य पदार्थ हूं, ऐसा भान नहीं हैं । गुरुगम के द्वारा जिज्ञासु उस निधान को जानता हैं । और शुद्ध भावसे उसका अनुभव करता हैं । गुरुगम प्राप्ति का उपाय विनय हैं । कहे कलापूर्णसूरि ४ ० ३१
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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