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________________ छोटे-बड़े सर्व जीवों के प्रति निःस्वार्थ प्रेम बहाती वात्सल्य धारा, अपराधी के प्रति बहता करुणा - प्रवाह यह उनकी संयमसाधना का परिपाक हैं । चाहे जैसे उग्र विहार, महोत्सवादि प्रसंगों के भरचक कार्यक्रम इत्यादि से शरीर श्रमित होने पर भी मंदिरमें प्रभु को देखते ही जो प्रसन्नता का परिमल उनके चेहरे पर अंकित होता देखने मिलता हैं, वह उनके हृदयमें अरिहंत परमात्मा के प्रति अविचल भक्ति और आत्मसमर्पण भावकी पराकाष्ठा को प्रकाशित करता हैं । परमात्म-दर्शन से आत्मदर्शन के ध्येयको सिद्ध करनेवाले इन साधक महात्मा का जीवन देखकर कहना पड़ता हैं : भक्ति-योग सर्वतोमुखी विकास का बीज हैं । इन महान साधक के चरणोंमें कोटिशः वंदनपूर्वक हम चाहते हैं कि वे चिरकालतक पृथ्वी को पावन बनाते रहे और जिनशासन की प्रभावना करते रहे । श्री मुनीन्द्र ( मुक्ति / मुनि) ( समाज ध्वनिमें से साभार, वि.सं. २०४४ ) कहाँ से मिले ? स्वातिनक्षत्रमें छीपमें पड़ा हुआ पानी मोती बनता हैं, उसी प्रकार मानव के जीवनमें प्रभु के वचन पड़े और परिणाम प्राप्त करे तो अमृत बनते हैं । अर्थात् आत्मा परमात्म-स्वरूप प्रकट होती हैं । परंतु संसारी जीव अनेक पौद्गलिक पदार्थोंमें आसक्त हैं, उसे ये वचन कहाँ से शीतलता देंगे ? अग्नि की उष्णतामें शीतलता का अनुभव कहाँ से होगा ? जीव मन को आधीन हो वहाँ शीतलता कहाँ से मिलें ? कहे कलापूर्णसूरि ४ - 10000 ३७३
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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