SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शांति और भावोल्लासपूर्वक चैत्यवंदन आदि करता । कभी स्तवन गानेमें अति आनंद आता तो ज्यादा समय भी लग जाता । . संगीत के ज्ञान की बाह्य-कला और भक्ति की आंतरकला से उसका जीवन समृद्ध बनने लगा । अक्षय के जीवनमें सबसे बड़ा रस कोई हो तो वह भक्ति का रस था । बहुत बार वह भगवान के पास घण्टों तक बैठा रहता... रोता... और प्रार्थना करता : 'ओ प्रभु दर्शन दो... दर्शन दो । कहाँ तक इस सेवक को पीड़ित करेंगे? मुझे मेरे जीवनमें दूसरी कोई अपेक्षा नहीं हैं । एकबार तेरे दर्शन हो जाये तो मैं जीवन सफल मानूंगा ।' ऐसी प्रार्थनाओं से उसके जीवनमें पवित्रता का प्रपात बहने लगा । रात और दिन प्रभुको... मात्र प्रभुको ही याद करने लगा। प्रभु की विस्मृति को वह आत्महत्या समान मानने लगा । एक क्षण भी प्रभु-स्मरण रहित रह जाय वह उसे खंजर के घाव जैसी विषम लगने लगी । जिन प्रभु के उपकार से ये सारी सुंदर सामग्रीयां मिली हैं, उन प्रभु को भूल जाना उसके जैसी दूसरी कृतघ्नता कौन सी ? प्रभु के दर्शन बिना नास्ता कर सकते हैं ? प्रभु की पूजा बिना खा सकते हैं ? प्रभु को याद किये बिना सो सकते हैं ? कदापि नहीं । उसका जीवन इतना प्रभुमय बन गया कि सुबह गांवमें रहे हुए मंदिर के दर्शन करने के बाद नवकारसीमें दूध पीकर गांव बाहर के मंदिरमें चला जाता और घण्टों वहाँ पसार करता । १११२ बजे के पहले वह कभी घर पर नहीं आता था । तो फिर धंधे आदिमें ध्यान देता या नहीं ? हां... वह धंधा करता था... लेकिन नाममात्र ही । जरूरत हो उतना ही, शायद जरूरत से भी कम । __ अक्षय व्यापारमें कम ध्यान देता और धर्ममें ज्यादा ध्यान देता वह मां को अच्छा नहीं लगा । पुत्र का धर्म और प्रभु-प्रेम देखकर वह अंतरसे अत्यंत खुश होती, परंतु उसे विचार आता कि मेरे अक्षय का धन के बिना क्या होगा ? आखिर मां का हृदय था ना ? (३४६ 0000wooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy