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________________ भोजनलंपट जमानेमें तपयोग के प्रति लोगोंमें आदरभाव खड़ा कराना हैं । क्रिकेट वगैरहमें कोई भी जीते, पर तपमें तो जैन ही जीतते हैं । लोगों को आश्चर्य होता हैं : जैन लोग यह तप कैसे कर सकते होंगे ? भगवान महावीरने १२॥ वर्ष के साधना कालमें मात्र ३४९ ही पारणे किये हैं । ऐसे महान आदर्श हमारे सामने हैं । फिर तप कैसे नहीं होता ? हमारे यहां ऐसी मनोवृत्ति हैं : पर्युषण के बाद तप वगैरह बंध ! पर सिद्धाचल की इस भूमि पर पर्युषण के बाद भी तप चालु रहे हैं। हमें तो आशा थी : मुनि अमितयशविजयजी ४५ उपवास करेंगे, किंतु दूसरी बार अवश्य ४५ उपवास करेंगे । ऐसी गरमीमें उग्र तपस्या की बहुत अनुमोदना । पूज्य धुरंधरविजयजी : सब आचार्य भगवंत इतना सारा बोल गये हैं कि मेरे लिए कुछ बचा ही नहीं । क्या बोलना ? ३-३ महिने से चातुर्मास प्रवेश से एक समान तप की आराधना चालु हैं । मासक्षमणों की लाइन चालु हैं । ३ दिन के बाद फिर एक मासक्षमण का पारणा होगा । यह साल तप का हैं । बरसात कम होती हैं, उस साल तप ज्यादा दिखता हैं । मैंने लगभग ऐसा देखा हैं । तप की ताकात हैं : बरसात से भी अधिक शीतलता देने की । तप से पुण्य के बादल तैयार होते हैं और वर्षा होती तपते हैं तपस्वी, पर पुण्य बरसता हैं सर्वत्र । ये सभी तप करते हैं, इससे बरसता पानी सभी पीते हैं । धरती तपती हैं तो उसमें दरार पड़ती हैं । पानी हो तो दरार नहीं पड़ती । तपागच्छमें दरारें पड़ी हैं । वे दरारें तप से मिट जाये, ऐसी हमारी अपेक्षा हैं । __पर्युषण के पहले हम मिलते रहे, पर्युषण के बाद भी मिलना होता ही रहा हैं । किसी न किसी निमित्त से । (१४६ 6600 600 कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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