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________________ विवेक : देह से आत्मा की भिन्नता की समझ । व्युत्सर्ग : निःसंदेहपूर्वक देह और उपधि का त्याग । शुक्लध्यान का प्रथम भेद 'पृथक्त्व वितर्क सविचार' हैं, यहां अभी भी विचार हैं । योगविंशिकामें उपा.म. लिखते हैं : इस काल में भी शुक्लध्यान के प्रथम भेद की झलक मिल सकती हैं । उस समय लोकोत्तर अमृत का आस्वाद मिलता हैं । आत्मा के आनंद का आस्वाद वही लोकोत्तर अमृत हैं । यहां विषय की विमुखता होती हैं । उपा. महाराजने यह प्रवचन-सार के आधार पर लिखा हैं । स्वयं की बुद्धि से नहीं लिखा ।। 'जो जाणदि अरिहंतं दव्वत्त-गुणत्त-पज्जवत्तेहिं । सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु तस्स जादि लयं ॥ १/८० ॥ - प्रवचनसार यहां जितने परमध्यान आयेंगे, वे सब स्व-आत्मद्रव्यमें घटाने ___ 'भेद-छेद करी आतमा, अरिहंतरूपी थाय रे ।' हम जुदाई रखते हैं, भक्त कभी भगवान के साथ जुदाई नहीं रखता । हम सब हमारे पास रखते हैं, भगवान को कुछ सौंपते नहीं हैं । सच्चा भक्त सब कुछ भगवान को सौंप देता 'द्रव्यादि चिंताए सार, शुक्लध्याननो लहीए पार; ते माटे एहि ज आदरो, सद्गुरु बिन मत भूला फिरो ।' . हेमचन्द्रसूरिजी जैसे भी कहते हैं : शुक्लध्यान की हमको पूरी प्रक्रिया नहीं मिली हैं, फिर भी जितना मिला हैं उतना बताते शुक्लध्यान का ध्याता एकदम सत्त्वशाली होता हैं, उसका मन निस्तरंग बना होता हैं ।। (३) शून्य ध्यान : __ मनको विकल्पविहीन बनाना वह हैं । शरीर को खुराक न दो तो उपवास होता हैं । मन को विचार न देकर मन का उपवास नहीं करा सकते ? (९२0000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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