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________________ FO સંઘ ઉપકારી પણ શ્રીસંઘનો પ્લે દૃષ્ટા શાન કરીની બિલ્લી साम पदवी प्रसंग, सुरत, वि.सं. २०५५ ३-१०-२०००, मंगलवार अश्विन शुक्ला ६ ध्यानयोग को निकाल दें तो संयम - जीवनमें रहा ही क्या ? इस ध्यान-विचार ग्रंथ के लिये क्षयोपशम, प्रज्ञा, योग्यता वगैरह चाहिए । वह न हो तो पकड़ नहीं सकते । ध्यान अनुभूतिजन्य हैं । ध्यान करने से नहीं होता, यह प्रभु कृपा से आता हैं, ऐसा मैंने मेरे जीवनमें अनुभव किया हैं । संयम, गुरु-भक्ति वगैरह ध्यान की पूर्व भूमिका के मुख्य घटक हैं । * चिंता, भावना, ज्ञान, सविकल्प और निर्विकल्प ये पांच शब्द यहां मुख्य हैं । यहां करण और भवन शब्द आयेंगे । अपूर्वकरण आदिमें करण का अर्थ होता हैं : अपूर्व वीर्योल्लास ! निर्विकल्प समाधि । इसमें वृत्तिओं का संक्षेप होता हैं । ( १ ) ध्यान : जैनदर्शन का ध्यान याने आत्मानुभूति ! उस समय बहुत कर्मों की निर्जरा होती हैं । चित्तमें अत्यंत प्रसन्नता पैदा होती हैं । ( कहे कलापूर्णसूरि ४ 00000000000 ८९
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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