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________________ भगवान के समान प्रेम अन्य कहीं भी न हो वह प्रीतियोग है । धन, शरीर, मकान, कीर्ति, शिष्य आदि समस्त पदार्थों से बढ़ जाये वैसा प्रेम प्रभु के प्रति होना चाहिये । यदि अन्यत्र प्रेम होगा तो भगवान नहीं आयेंगे । भगवान कदाचित् सोचते होंगे कि भक्त को अभी भटकना है, भटकने दो । थक कर आयेंगे तब बात । हम दोनों ओर प्रेम रखते हैं । दूध तथा दही में, संसार में तथा भगवान में प्रेम रखते हैं । इस प्रकार भगवान नहीं मिलते । ____मैं इतना कहता हूं फिर भी आप में प्रभु-प्रेम प्रकट नहीं होता हो तो उत्तरदायित्व मेरा नहीं है। नहीं कहूं तो उत्तरदायित्व मेरा, परन्तु कहने के पश्चात् भी आपमें परिवर्तन नहीं आये तो मैं क्या कर सकता हूं? जमालि एवं गोशाला के लिए भगवान भी क्या कर सके थे ? * हमारे फलोदी में बिच्छु बहुत होते हैं । उसमें भी हमारा मकान अर्थात् बिच्छुओं का ही मकान । मेरे पिताजी नित्य बाल्टी में दस-पन्द्रह बिच्छु एकत्रित करके जंगल में छोड आते थे । एक बार बनियान उतार कर में 'स्थंडिल' गया था । लौटने के पश्चात् बनियान पहना और मुझे कांटे जैसा लगा । देखा तो एक बडा बिच्छु था । संभाल कर उसे मैं ने बाहर रखा । उन तीस वर्षों में मुझे कदापि बिच्छु काटा नहीं ।। यह जीव दया का प्रभाव है। यदि हमारा अन्तःकरण जीवों की दया से परिपूर्ण हो तो कौन क्या कर सकता है ? * मेरी इतनी बात तो मानो - चैत्यवन्दन तो शान्तिपूर्वक करो । मैं अनेक व्यक्तियों को पूछता हूं - चैत्यवन्दन में कितना समय निकाला ? केवल १०-१५ मिनट ? इधर-उधर की प्रवृत्तियों में तो अपना बहुत समय जाता है, परन्तु चैत्यवन्दन जैसी महत्त्वपूर्ण वस्तु के लिए हमें समय नहीं है। सचमुच तो चैत्यवन्दन हमें महत्त्वपूर्ण नहीं लगता होगा । कदाचित् ऐसा हो, जिन्दगी अधिक लम्बी प्रतीत होगी । मेरे जैसे वृद्ध के लिए आवश्यक होगा, आप युवानों को आवश्यक नहीं लगता होगा, या तो स्वर्ग अथवा मोक्ष निश्चित होगा, अन्यथा इतना प्रमाद किस कारण होगा ? कहे कलापूर्णसूरि - ३nsomnosomammooooomn६५)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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