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________________ पूर्व के सत्त्वशाली मनुष्य के द्वारा सेवित एवं शुभ के अनुबंध वाला अपवाद होना चाहिये । चाहे जिस प्रवृत्ति को अपवाद नहीं कहा जा सकता । सूत्र को बाधा आती हो, हित-अहित या गुरु-लाघव का सोच न हो उसे अपवाद नहीं कहा जाता । ऐसा अपवाद तो भगवान तथा भगवान के शासन की अपभ्राजना करने वाला है । क्षुद्र सत्त्वों के द्वारा आचरित को अपवाद नहीं कहा जाता । छोटे से घास के तिनके अथवा पत्ते को तैरता देखकर उसके आलम्बन से आप तर नहीं सकते । उस प्रकार ऐसे क्षुद्र अपवाद से आप टिक नहीं सकते । * इस शासन की गम्भीरता को आप सोचे, शासन की गम्भीरता आप लोगों को भी बतायें । इसी ग्रन्थ में आगे आएगा अभय, चक्षु, मार्ग, शरण अथवा बोधि भगवान के पास से ही मिलेंगे, अन्य कहीं से नहीं मिलेंगे यह बात अच्छी तरह समझायेंगे । - - इस ग्रन्थ में एक ओर भगवान की करुणा को बताने वाले विशेषण आते जायेंगे । साथ ही साथ अन्य अन्य दार्शनिकों के कुमतों का खण्डन भी आता जायेगा । अन्य दर्शनों का निरुपण एकांगी होगा। यहां अनेकान्त होगा । यह बड़ा अन्तर होगा । जैन दर्शन इतना विशाल है कि संसार के समस्त धर्म समा जायें । एक ऋजुसूत्र नय में बौद्ध दर्शन का समावेश हो गया । इसीलिए जैन दर्शन राजा है । समस्त धर्मो का एक पुरुष बना लें तो सिर के स्थान पर जैन दर्शन है । अन्य समस्त दर्शन हाथ-पैर, पेट आदि के स्थान पर हैं । नास्तिक दर्शन भी पेट के स्थान पर है ऐसा आनन्दघनजी ने कहा है । जैन दर्शन विशाल समुद्र है, जहां समस्त धर्मों की नदियों का समावेश है । जैन-दर्शन माला है, जिसमें सर्व धर्म मणकों के रूप में पिरोये हुए हैं । परन्तु याद रहे सागर में नदियां हैं, नदी में सागर नहीं हैं । माला में मणके हैं, मणके में माला नहीं है । जैन दर्शन कहे कलापूर्णसूरि- ३ SHE CITIESTERONEY CYRAIMAHDI ५१
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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