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________________ प्रभु में लीन सद्गुरु (पू. कलापूर्णसूरिजी) आपको मिले हैं, यह आपका महान सौभाग्य है । जो भगवान की बात करते-करते गद्गद् हो जायें, जिन्हें प्रति पल भगवान ही याद आयें, वे - ही सद्गुरु हैं । हरिभद्रसूरिजी याकिनी महत्तरा को कहीं भी नहीं भूलते, उस प्रकार प्रभु का भक्त उपकारी को कदापि नहीं भूलता, चाहे वह उपकारी बिल्कुल छोटा ही हो । संयम लिया अतः पसंदगी छोड़ दी । मुझे यह अच्छा लगता है । अच्छा नहीं लगता यह शब्द साधु-साध्वी के नहीं होते । चाहे जैसी परिस्थिति होगी, मैं गुरु की प्रत्येक बात शिरोधार्य करुंगा । एक अजैन प्रसंग बताता हूं - सर्व प्रथम आये हुए साधक को गुरु कहते हैं - 'कचरा निकाल ।' वह कचरा निकालना प्रारम्भ करता है। जब तक गुरु इनकार नहीं करते तब तक वह कचरा निकालता ही रहता है । हमें तो 'स्वामी शाता हे जी ?' का उत्तर नहीं मिले तो भी हमारा मुंह चढ़ जाता है । वह साधक बारह वर्षों तक कचरा निकालता रहता है । धैर्य के बिना गांठ नहीं छूटती, मार्ग नहीं मिलता । गुरु को क्या करना चाहिये? यह नहीं, हमे क्या करना चाहिये, यह सीखना है । गुरु को क्या करना है ? ऐसा विचार करने वाला का इस शासन में स्थान नहीं है । बारह वर्षों के पश्चात् गुरु ने पूछा, 'बेटे ! तू क्या करता है ?' 'आपकी आज्ञा से कचरा निकालता हूं ।' . 'जा, बेटे ! तेरा सब कचरा निकल गया ।' उसके भीतर का सभी कचरा निकल गया, मन शुद्ध हो गया । यहां गुरु की आज्ञानुसार प्रत्येक आज्ञा निर्जरा का कारण है। हम व्याख्यान देने में प्रतिष्ठा (स्टेटस) मानते हैं, परन्तु पानी लाना, कचरा निकालना आदि प्रतिष्ठा (स्टेटस) से बाहर के कार्य मानते हैं । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 60owwwoooooooooooom २९)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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