SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 407
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिसने यह पुस्तक हाथ में ली होगी, उसे यह पता नहीं चलेगा कि कितने बजे है ? पढे हुए सभी पुस्तकों में श्रेष्ठतम पुस्तक हम इसे गिनते हैं । इन पुस्तकों को पाठक की समक्ष लानेवाले पू. पंन्यासजी बंधुयुगल तथा उन्हें जन्म देनेवाली मातृश्री भमीबेन भी धन्यवादाह है। - जतिन, निकुंज, वडोदरा 'कहा कलापूर्णसूरि ने' पुस्तक मिल गई । पुस्तक भेजी उसके लिए अत्यन्त आभार । हम आपके ऋणी हैं । दूसरी बात यह है कि हमारी दूसरी महासतियां यहां आई हैं, उन्हों ने यह पुस्तक देखी । उन्हें भी यदि यह पुस्तक प्राप्त हो तो उत्तम, यह भावना है। यदि आप भेज सकें तो 'कहे कलापूर्णसूरि' और 'कडं कलापूर्णसूरिए' ये दोनों पुस्तकें भेजने की कृपा करें । - अनसूयाबाई महासती राजकोट 'कहे कलापूर्णसूरि', 'कडं कलापूर्णसूरिए' दोनों अमूल्य ग्रन्थरत्न मिले । सचमुच, ये ग्रंथरत्न मात्र संग्रह करने योग्य ही नहीं हैं, परन्तु उन ग्रन्थों के साथ सत्संग करने योग्य है । ऐसे ये अमूल्य ग्रन्थ हैं । आपश्री ने पूज्य आचार्य भगवंतश्रीजी की वाचना को जो शब्दस्थ की है वह सचमुच अनुमोदनीय है । __- हितवर्धनसागर, ७२ जिनालय, कच्छ 'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक मिली । आपने अत्यन्त रुचि एवं लगन से संकलन किया है, जिसके लिए आप साधुवाद के पात्र हैं । अनेक जीवों के लिए यह ग्रन्थ महा उपकारक बनेगा यह निःशंक है । ऐसे अनेक ग्रन्थ आपके द्वारा शासन को प्राप्त होते रहें, ऐसी शुभेच्छा ।। - अरविन्दसागर, अहमदाबाद (कहे कलापूर्णसूरि - ३0000000000000000000 ३७५)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy