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________________ नये साधक कभी-कभी मेरे पास आते रहते हैं । वे सच्चा मार्ग-दर्शन प्राप्त करके ऐसी धन्यता व्यक्त करते हैं कि ओह ! आज मेरा जीवन सफल हो गया ! मैं धन्य हो गया ! अधिक नम्रता आती है, त्यों त्यों अधिक अधिक गुण आते हैं । आगोमा डी । । जिस गुण का अभाव प्रतीत हो, वह गुण प्राप्त करने का संकल्प करके उसके धारकों को वन्दन करते जाओ तो वह गुण आयेगा ही । _ 'भगवन् ! मुझे दासत्व दीजिये ।' ऐसी नम्रतापूर्वक गणधरों ने याचना की है। क्या भगवान ने इनकार किया ? क्या आपने कभी याचना की है ? कई बार भगवान मिले होंगे, परन्तु हमने दीन बन कर याचना नहीं की होगी, अक्कड़ बने रहे होंगे । आज प्रातः आचार्य भगवंतों ने कैसे आशीर्वाद दिये ? यद्यपि आचार्य भगवंतों ने शुभेच्छा व्यक्त की, परन्तु मेरे लिए तो वे आशीर्वाद बने ? मुझ में ऐसे गुण आयें तो उत्तम है । ऐसी मैं ने उस समय इच्छा की थी । कोई भी व्यक्ति प्रशंसा करे तब यह नहीं माने कि वे गुण मुझ में हैं; परन्तु यह मानें कि वे गुण भविष्य में मुझ में आ जायें । दीक्षा ग्रहण करने के कोई भी मेरे भाव नहीं थे, फिर भी लोगों में उस समय ऐसी बातें चलती थी कि 'अक्षय दीक्षा ग्रहण करने वाला है।' उस समय मैं सोचता कि लोगों के भाव सफल हों, और मुझे सचमुच दीक्षा मिल गई । (१०) गम्भीराशयाः । परोपकार से गुणों का प्रारम्भ होता है । अन्त में देव-गुरु के बहुमान से गम्भीरता प्रकट होती है। गम्भीरता गुणों की पराकाष्ठा है । गुण प्राप्त करके आछकलाई नहीं करनी है, गम्भीरता लानी (३२८ 000mmoooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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