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________________ (७) कृतज्ञतापतयः । किसी भी व्यक्ति का उपकार वे कदापि नहीं भूलते । वे कृतज्ञता गुण को ऐसा आत्मसात् करते हैं कि वे उसे कदापि छोड़े नहीं । आपने यदि नौकर को पुत्र की तरह रखा हो तो क्या वह आपको छोड़ कर कभी जायेगा ? गुणों पर नियन्त्रण हो तो वे हमें छोड़ कर कदापि जायेंगे नहीं । सचमुच तो गुण ही अपना सच्चा परिवार है । मैं आत्मा ! ज्ञानादि गुण मेरे ! नित्य संथारा पोरसी में ऐसा याद करते हैं न ? जिसको ऐसी प्रतीति हो चुकी हो उसे कोई स्थान छोड़ने में दुःख होगा ? कल ही यह स्थान छोड़ना है तो दुःख थोडा ही लगेगा ? इसी प्रकार से यह देह भी छोड़नी है। इसमें दुःख कैसा ? _ 'यः पश्येन्नित्यमात्मानमनित्यं परसङ्गमम् ।' जो आत्मा को नित्य एवं 'पर' के संयोगों को अनित्य माने उसे मोह क्या कर सकता है ? ऐसे शास्त्रों के स्वाध्याय से ही सद्गुण प्रकट होते हैं । आप अपने पुत्रों कों ऐसी सलाह देते हैं ताकि हानि न हो, लाभ ही हो, उस प्रकार भगवान ने ऐसे शास्त्र दिये हैं जिनका पालन करने से लाभ ही होता है, हानि तनिक भी नहीं होती । प्रातः काल से सायंकाल तक के साधु-जीवन के अनुष्ठानों में क्या तनिक भी हानि है ? पल-पल में अनन्त कर्मों को क्षय करने की अनुष्ठानों में शक्ति है। एक भी श्लोक या पद कण्ठस्थ कर लो तो वह आपके लिए आजीवन भाथा बन जायेगा । __ पू.पं. कीर्तिचन्द्रविजयजी : कौनसा श्लोक आत्मसात् किया जाये ? पूज्यश्री : अनेक श्लोक हैं । कुछ उदाहरण बताऊं क्या ? 'आया हु मे नाणं... आया मे संजमे' "एगोहं नत्थि मे कोइ ।' 'उपयोगो लक्षणम्' ऐसे पदों में से कोई भी एकाद पद पकड़ कर आप अपनी भावधारा को विशुद्ध बना सकते हैं । (३०८ 66666 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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