SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 334
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूज्यश्री ने मुझे और मालशी लखधीर को चातुर्मास की जय बोलने से पूर्व वांकी में बुलाया था । पूज्यश्रीने कहा : 'मैं धर्म-संकट में हूं। दोनों समाजों को लाभ देना है ।' हमने पूज्यश्री की यह बात स्वीकार कर ली । दोनों समाज ही क्यों ? समग्र जैन शासन के श्रावक एक हो जायें तो जैन-शासन का डंका बज जाये । जीवदया, राजकारणी, चुनाव आदि के समस्त फण्ड जैनों के द्वारा ही किये जाते हैं । कत्लखानों में से जीवों को बचाने के लिए भी जैनों का योगदान होता है । जैन यदि एक हो जायें तो क्या नहीं कर सकते ? मैं नम्र विनती करूंगा कि प्रत्येक जैन इतना संकल्प करे कि कत्लखानों आदि को प्रोत्साहन मिले ऐसे कोई शेर आदि न खरीदें । असहयोग से ये कार्य बन्ध कराये जा सकते हैं । शुभ कार्य में विघ्न तो आता ही है । दस्तें-वमन के रूप में विघ्न चातुर्मास में आया । अगस्त की प्रथम तारीख से बीमारी शुरु हुई है - दस्तें लगने की और वमन होने की । फिर भी किसी बीमार ने शिकायत नहीं की । उनकी समता की मैं प्रशंसा करता हूं। उनकी सेवा में कोई त्रुटि रह गई हो तो मैं पुनः पुनः क्षमा याचना करता हूं । आज 'हार्ट एटैक' से मृत्यु का एक केस हुआ है । कल वे दो-तीन बार बेहोश (अचेत) हो गये थे । ऐसे क्षेत्र में देह छोड़ कर वे निश्चित रूप से स्वर्ग में गये हैं, ऐसी मुझे श्रद्धा है । * दानेश्वरी प्रेमजीभाई ने प्रथम तो सम्पूर्ण चातुर्मास का खर्च वहन करने की बात की थी, परन्तु पूज्यश्री ने सम्पूर्ण संघ को लाभ मिले ऐसी बात की थी । प्रेमजीभाई, हरखचंदभाई, धनजीभाई आदि ने अच्छी रकम (धनराशि) लिखवाई । समस्त दाताश्रियों का अत्यन्त आभार मानता हूं । प्रेमजीभाई को पुनः पुनः धन्यवाद क्योंकि उन्हों ने ३३ प्रतिशत जितना हमारा बोझ हलका किया । अब भी वे देने के लिए तैयार हैं, परन्तु शायद अब आवश्यकता नहीं पड़ेगी । मुझे सदा लगा है कि मानो कोई अदृश्य शक्ति हमें सहायता कर रही हो । रतनशीभाई, माडणभाई, वेलजीभाई आदि कितने नाम (३०२ ooooooo o ooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy