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________________ यह उसका शौक ही होता है । वनस्पति में कल्पवृक्ष, पत्थर में चिन्तामणि बनकर वहां भी परोपकार चालु ही... ! जिस प्रकार वणिक्-पुत्र जेल में जाये तो भी धंधा चालु रखता है न ? भगवान का एकेन्द्रिय में भी परोपकार का धन्धा चालु होता है । जगशीभाई : साहेबजी ! यहां पालीताणा में भी धंधा चालु है । पूज्यश्री : वाचना में तो कोई धंधा नहीं करता न ? सारा संसार स्वार्थपूर्ण है । सम्पूर्ण जगत् स्वार्थ के काजल से भरा हुआ है । स्वार्थ की बात हो तो आगे । परोपकार की बात आये तो चेहरा नीचे झुक जाता है । यह हम में से लगभग सबका स्वभाव है। भगवान का स्वभाव इससे विपरीत होता है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद तो यह गुण इतना पराकाष्ठा पर पहुंचता है कि समस्त जीवों को शासन-रसिक बनाने की भावना उत्पन्न होती है। ___मैं मोक्ष में जाऊं और दूसरे यहां संसार में रहें, यह कैसे चलेगा ? मेरा जोर चले तो मैं सबको मोक्ष में पहुंचा दूं । ऐसी भावना से ही तीर्थंकर नामकर्म बांधते हैं। इसके प्रभाव से ही भगवान बड़े समूह को तीर्थंकर के भव में धर्म मार्ग की ओर मोड़ सकते हैं । चतुर्विध संघ के सदस्यों को भगवान ऐसा तैयार करते हैं कि वे भी दूसरों को धर्म-मार्ग पर चढ़ाते रहते हैं । तुंगिया नगरी के श्रावक ऐसे थे कि कच्चे साधु वहां जाने में घबराते थे । एक साधु महाराज ने तुंगिया में प्रवेश किया तब उनका ओघा (रजोहरण) उल्टा रखा था - दशी आगे और डंडी पीछे । यह देख कर श्रावकों ने उन्हें वन्दन नहीं किया । फिर पता लगा तब मुनि ने अपनी भूल स्वीकार की । वहां ऐसे श्रावक थे । __ यह सम्पूर्ण तीर्थ की स्थापना परार्थ-रसिकता के गुण पर से ही हुई है । परोपकार करना तो ऐसा करना चाहिये कि फिर उसे कदापि दूसरे किसी की आवश्यकता न पड़े । भिखारी को आप कितना देते हैं ? (२८८ wwwwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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