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________________ क्रिया बार-बार इसके लिए ही करनी है । जीवनभर यही क्रिया क्यों करें ? यह न सोचें । नित्य वही रोटी-सब्जी, चावलदाल आदि खाने वाले हम नित्य-प्रति की क्रिया से ऊब जाते हैं, परन्तु यह खाने आदि से क्यों नहीं ऊबते ? याद रखें - अपनी साधना की कमाई लूटने के लिए ये चोर तैयार ही हैं। हम तनिक गाफिल रहे तो गुण्डे आप पर सवार हो जायेंगे । इसी लिए इस गुण-कमाई को सम्हालकर रखना है । 'गुणवृद्ध्यै ततः कुर्यात्, क्रियामस्खलनाय वा । एकं तु संयमस्थानं, जिनानामवतिष्ठते ॥' - ज्ञानसार * कैसे अद्भुत भगवान हमें मिले हैं । जगत् में लाखों, करोड़ो, अरबों मनुष्यों को जो नहीं मिले वे हमें मिले हैं । ऐसा अहोभाव कायम रहे तो प्रभु के प्रति भक्ति प्रकट हुए बिना नहीं रहेगी । ऐसा भक्त ही प्रभु के समक्ष कहता है - 'सेवणा आभवमखंडा... भवे भवे तुम्ह चलणाणं' मुझे सद्गुरु की सेवा और भगवान के चरणों की सेवा भवो भव प्राप्त हो । सुगुरु आदि सामग्री प्राप्त कराने वाले भी भगवान ही हैं । भगवान के साथ यदि प्रेम जुड़ गया तो अपनी गुण-सम्पत्ति अनुबंध वाली बन जायेगी । जन्मान्तर में भी यह गुण-सम्पत्ति साथ चलेगी। (५) सयंसंबुद्धाणं । ___ अन्य दर्शन वालों की तरह हम भगवान का अनुग्रह नहीं मानते । महेश के अनुग्रह से ही ज्ञान होता है उस प्रकार एकान्त से हम नहीं मानते । हम यह मानते हैं - सामने जीव का उपादान भी तैयार चाहिये । सूर्य को सहने के लिए आंखें भी तैयार चाहिये । उल्लू बिचारा सूर्य को सहन नहीं कर सकता । जीव की योग्यता भी महत्त्वपूर्ण है जो इस पद से स्पष्ट होता है। भगवान को प्रथम बार बोध प्राप्त होता है उसमें अपनी योग्यता ही मुख्य होती है। (घोर वर्षा के कारण पतरों की आवाज आने के कारण समय से पूर्व वाचना समाप्त की गई ।) (२८४000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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