SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'श्रमण-प्रधान संघ' ऐसा अर्थ भी किया जा सकता है, क्योंकि यहां साधुओं की प्रधानता है । * 'सुअं मे आउसं ।' हे आयुष्मान् ! जम्बू ! जिस तरह मैं ने भगवान के पास सुना उस तरह कहता हूं - त्ति बेमि ! समस्त आगमों के अन्त में कहा है - 'त्ति बेमि' उस तरह (अर्थात् भगवान ने कहा उस तरह, मेरी बुद्धि से नहीं) मैं कहता हूं । यहां स्व-बुद्धि का कोई स्थान नहीं है । * नौ का अंक अखण्ड है। किसी भी संख्या के साथ उसको गुणा करो तो उस संख्या के अंकों के योगफल में अन्त में नौ ही आयेंगे । उदाहरणार्थ ९ x २ = १८ (१ + ८ = ९) __इस प्रकार पूर्ण को चाहे जहां ले जाओ, उसमें से चाहे जितना निकालो कि उसमें चाहे जितना डालो । पूर्ण पूर्ण ही रहेगा । ओं पूर्णमदः पूर्णं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते ॥ - उपनिषद् * अपनी समस्त प्रवृत्ति के मूल में सूर्य है । सूर्य नहीं उगे तो अंधेरे में प्रायः कोई प्रवृत्ति नहीं हो सकती, उस प्रकार तीर्थ के बिना कोई भी धर्म प्रवृत्ति नहीं हो सकती । अपनी धर्मप्रवृत्ति का मूल यह तीर्थ ही है, ऐसा स्वीकार करना पड़ेगा । भव्य जीवों को इस प्रकार धर्म में प्रवर्तन कराने से भगवान परम्परा से अनुग्रह (उपकार) करने वाले हैं। भगवान अनुग्रह (उपकार) करने वाले हैं और हम अपकार करने वाले तो नहीं हैं न ? जैनों के पर्युषण पर्व में ही जीवदया आदि के लिए कितना फण्ड होता है ? कितनी तपस्याएं होती हैं ? तप होने से जीवों को अभयदान मिलता है न ? मुसलमानों के त्यौहार 'बकरी ईद' आदि के समय बकरे कटते हैं, जबकि यहां जीवों को अभयदान मिलता है । इसी लिए तीर्थंकरों को परम्परा से अनुग्रह करने वाले कहा गया है । यहां पंजिकाकार लिखते हैं कि परम्परा से (अर्थात् अनुबन्ध से) अपनी तीर्थ की अनुवृत्ति के समय तक सद्गति आदि के (२८०Boooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy