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________________ * यशोविजयजी ने लिखा है कि इस काल में अनालम्बन योग तक जा सकते हैं और अनालम्बन योग में शुक्ल ध्यान का अंश हो सकता है ।। अनालम्बन योग की स्थिति अगम अगोचर है, शब्द से वाच्य नहीं है । सामर्थ्य योग की अभी बात आई न ? अनालम्बन योग और सामर्थ्य योग दोनों एक ही हैं । घी और आटा हो परन्तु शक्कर न हो तो क्या 'सीरा' बन सकता है ? शक्कर या गुड़ के बिना क्या मिठास आ सकती है ? आध्यात्मिक जीवन में भी माधुर्य सम्यग्दर्शन (विनय) से ही आ सकता है। भगवान एवं गुरु से ही सम्यग्दर्शन मिल सकता है, दूसरे कहीं से नहीं । * 'ललित विस्तरा' पढ़ने से मेरी श्रद्धा बहुत ही बढ़ी है। इसीलिए यह ग्रन्थ मैं पुनः पुनः पसन्द करता हूं। इस ग्रन्थ का अधिकारी चतुर्विध संघ है। किसी पर प्रतिबन्ध नहीं है। शायद आपको कहीं समझ में न आये तो भी इस ग्रन्थ का महत्त्व कम नहीं होता । इस समय 'तित्थयराणं' पद पर विवेचन चलता है । आज प्रातः ही तीर्थ (संघ) पर प्रवचन हुए थे न ? हम हरिभद्रसूरिजी के शब्दों में तीर्थ की व्याख्या सुनें । उमास्वातिजी ने स्वभाष्य में कहा है जो सभी जैनों को मान्य है। जिस तरह सूर्य स्वभाव से ही लोक को प्रकाशमय करता है, उस प्रकार भगवान तीर्थ-प्रवर्तन करते हैं, इसके लिए देशना देते हैं । भगवान की शक्ति अधिक है कि उनके वचनों की शक्ति अधिक है ? भगवान की जितनी शक्ति है उतनी ही वचनों की शक्ति है। वचनों में शक्ति आई वह भी भगवान में से ही आई है न ? उन शब्दों में कितनी शक्ति है, जिनके प्रभाव से तीर्थ बन गया, द्वादशांगी बन गई ? जिन शब्दों में प्राण फूंकने वाले स्वयं भगवान हों, वहां क्या शेष (बाकी) रहेगा ? __. ऐसे भगवान को देखते ही हृदय नाच उठता है - (कहे कलापूर्णसूरि - ३006666660 २६९)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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