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________________ हमारे पूर्वज जो यह सम्पत्ति छोड़ गये हैं उसे हमें अधिक समृद्ध बनाकर भावी पीढ़ी के लिए रखनी है । * परम तपस्वी पूज्य आचार्य श्री विजय राजतिलकसूरीश्वरजी म.सा. को हमने आंखों से देखे हैं । वे १०० + १०० + ८९ ओली के महान् आराधक थे । यह विक्रम अभी तक कोई तोड़ नहीं सका । __ पूज्य आचार्यश्री की आज दूसरी स्वर्गतिथि है । तप-साधना से उनकी आत्मा तो उच्च गति में ही होगी, परम-पद की साधना करती ही होगी, परन्तु अपनी इतनी ही प्रार्थना है कि हम सब पर वे कृपा-वृष्टि करते रहें । पू. धुरन्धरविजयजी म. : पूज्यश्री के हृदय में संघ के प्रति अत्यन्त ही आदर-भाव है । आपको सुनाई नहीं दिया हो तो भी शब्दों के आन्दोलन तो आप तक पहुंचे ही हैं । नवकार में संघ को नमस्कार क्यों नहीं ? मैं ने यह पूछा था । उन्हों ने आज पुनः उत्तर दे दिया । अरिहन्त + आणं - अहँत की आज्ञा को नमन । आज्ञापालक संघ ही है । अरिहन्त से तीर्थ भिन्न नहीं है । साथ ही नमन हो जाता है । आपको यह उत्तर पसन्द आ गया न ? तीर्थंकर एवं तीर्थंकर की आज्ञा कदापि अलग नहीं होते । जहां संघ है, वहां तीर्थंकर हैं ही । आचार्यश्री निरन्तर प्रभु में डूबे हुए (निमग्न) हैं । अतः पूज्यश्री मौन रहेंगे, कुछ नहीं बोलेंगे तो भी उनका अस्तित्व मात्र उत्सव बना रहेगा । पू. यशोविजयसूरिजी : मेरे जीवन की यह एक धन्यतम घटना है । चतुर्विध संघ के दर्शन अहोभावपूर्वक करने को मिले । एक भी सदस्य को प्रभु के मार्ग पर जाते देखकर आंखे हर्षाश्रुओं से छलक उठती संघ के दर्शन मात्र अहोभाव से भीजे नेत्रों से ही किये जा सकते हैं । कभी-कभी विहार में घंटों तक नेत्र भीगे रहते हैं । | २६२0oooooooooooooooo0 कहे कलापूर्णसूरि - ३]
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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