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________________ सांख्य दर्शन, निरसन आदि की चर्चा में गौण करुंगा, क्योंकि इस सभा में इनकी आवश्यकता नहीं है। * हमारे भीतर गुणों के विविध व्यंजन हैं। विविध मिठाइयों या विविध पदार्थों की तरफ होने वाला आकर्षण सचमुच इसी बात का संकेत है, परन्तु हम यह संकेत समझते नहीं हैं । हम विविध पदार्थों से तृप्त होकर गुणों के प्रति पराङ्मुख रहते हैं । 'भग' का छठा अर्थ प्रयत्न होता है । (६) प्रयत्न : प्रभु में उत्कृष्ट पुरुषार्थ होता है । रातभर एक ही पुद्गल पर अनिमेष रहकर प्रभु-साधना करते हैं । आंख तनिक भी झपके नहीं । कितनी भीषण साधना ! कितना भयंकर पुरुषार्थ ! भगवान महावीर की साधना का श्रम तो देखो । भगवान के सिवाय ऐसा श्रम कौन कर सकता है ? हम तो भरत चक्रवर्ती की तरह केवलज्ञान प्राप्त हो जायेगा, यह मानकर आराम से बैठे हैं । भगवान तो परिषह-उपसर्ग अधिक आते हैं त्यों अधिक मजबूत बनते हैं । समुद्घात के समय क्या कम पराक्रम होता है ? इसमें प्रयत्न की पराकाष्ठा होती है। योग-निरोध के समय भी प्रबल पुरुषार्थ होता है । केवलज्ञान होने के बाद भी कितना भव्य पुरुषार्थ ? सामान्य केवली ही समुद्घात करते है ऐसा नहीं है, परन्तु तीर्थंकर भी समुद्घात करते हैं। आयुष्य तथा कर्म समान स्थिति वाले न हों तो समुद्घात करना पड़ता है । यह पुरुषार्थ आत्मवीर्य से प्रकट हुआ है । यहां सर्वत्र समग्र शब्द लगायें । ऐश्वर्य, रूप, यश, श्री, धर्म और प्रयत्न के स्वामी भगवान को हमें नमस्कार करना चाहिये । पूज्य में जितनी शक्ति है, वह समस्त शक्ति पूजक को मात्र नमस्कार से मिलती है । जिस कम्पनी के आप 'शेअर होल्डर' बने हैं उस कम्पनी का लाभ आपको ही मिलेगा न ? जिस नमस्कार से ये सब गुण मिलते हैं, उस नमस्कार का मूल्य कितना है ? इस नमस्कार के पीछे भक्ति-भावना का जितना (कहे कलापूर्णसूरि - ३000mooooooommon २४९)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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