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________________ हो उस दुकान में ही जाते हैं न ? इसीलिए कुसंगति का इनकार किया है । बुरा पड़ोस हो वहां रहने का भी इनकार किया है। क्या आप जानते हैं कि मार्गानुसारी में यह भी एक गुण हैं ? भुज की वाणियावाड़ में आप जायेंगे तो आपको समस्त जैन ही देखने को मिलेंगे । वहां कुसंगति शीघ्र नहीं आ सकती ।। अभी आषाढ़ कृष्णा ६ के दिन पूज्य दादाश्री जीतविजयजी महाराज का जीवन देखा । आज उनके ही प्रशिष्य महापुरुष को याद करना है। उनका जीवन ही व्याख्यान था । उन्हें कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रहती थी । संवत् १९३९ की भादों कृष्णा पंचमी को पूर्व कच्छ के पलांसवा गांव में चंदुरा नानजीभाई - नवलबेन के घर उन महापुरुष का जन्म हुआ था । गृहस्थ-जीवन का उनका नाम कानजीभाई था । उस समय उंगली के वेढों पर गिने जा सकें उतने ही संविग्न पूज्य साधु-साध्वीजी थे । पूज्य पद्मविजयजी ने यति परम्परा छोड़ कर संवेगी दीक्षा ग्रहण की थी । उनके शिष्य थे पूज्य जीतविजयजी महाराज ! पूज्य जीतविजयजी महाराज की आज्ञावर्तिनी विशुद्ध संयमी पूज्य साध्वी आणंदश्रीजी की दृष्टि में पलांसवा-निवासी ये कानजी बस गये । विनय-व्यवहार आदि देख कर ये भावी शासन-प्रभावक प्रतीत हुए । हरिभद्रसूरिजी को तैयार करनेवाली याकिनी महत्तरा साध्वी थी । उस प्रकार इन महापुरुष को तैयार करने वाली आणंदश्रीजी साध्वी थी। उनके ही संसारी चाचा हीरविजयजी पहले से ही दीक्षित थे, जिनके परिवार में एक दीक्षित हो तो दूसरे की भी इच्छा होती ही है । मालशीभाई ! आपके परिवार में से कितने दीक्षित हुए ? मालशीभाई : कुछ कहने जैसा नहीं है । सर्व प्रथम कानजीभाई साध्वीजी आणंदश्रीजी के सम्पर्क में आये । साध्वीजी की प्रेरणा ने उनमें वैराग्य का बीज बोया । कानजी की आत्मा संसार के कैद में से छूटने के लिए तड़प रही थी । उन्हों ने दीक्षा ग्रहण करने का दृढ़ संकल्प किया । (२४० 56 GB GS 5 GS 6 6 6505666 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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