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________________ 'सव्वे जीवा न हंतव्वा' भगवान की इस आज्ञा का यहां अनजाने भी पालन हो गया तो भी फल कैसा अद्भुत मिला ? __ अनन्त बार दुःख भोगना हो तो ही किसी जीव को सताना । इसे उल्टा कर यह भी कहा जा सकता है कि आपको अनन्त सुख चाहिये तो दूसरे को सुख देना । * तथाभव्यता की परिपक्वता के लिए शरणागति आदि तीन हैं। भगवान की स्तवना करने से उनके गुणों की अनुमोदना हुई । पाप की गर्दा न करें तो वह प्रगाढ़ बनती है उस प्रकार पुण्य की अनुमोदना न करें तो वह प्रगाढ़ नहीं बनता । पाप का अनुबन्ध तोड़ने के लिए सुकृत-अनुमोदना है । अपने अनुष्ठान ही ऐसे हैं, जिनमें कदम-कदम पर ये तीनों गुथे हुए ही हैं, चाहे हम जानें कि नहीं जानें । अनजाने भी भोजनपानी ग्रहण करते हैं तो भी शक्ति मिलती ही है न ? * 'स्वाध्याय में मन लगता है, क्रिया में नहीं ।' कल एक व्यक्ति ने मुझे एक प्रश्न पूछा था । मैं कहता हूं कि ज्ञान के बिना क्रिया व्यर्थ है । उस प्रकार क्रिया के बिना ज्ञान भी व्यर्थ है । आप कदापि एकांगी न बनें । पूज्य मुनिचन्द्रसूरिजी : "क्रियाहीनं च यज्ज्ञानं, ज्ञानहीना च या क्रिया । अनयोरन्तरं ज्ञेयं, भानुखद्योतयोरिव ॥' - ज्ञानसार ज्ञानसार के इस श्लोक में क्रिया से ज्ञान का अधिक महत्त्व क्यों दिया गया है ? पूज्यश्री : जिनके जीवन में ज्ञान न हो उन्हें इस प्रकार समझायें, परन्तु क्रिया न हो उसे दूसरी तरह से समझाना पड़ता है। * पत्र में पता लिखो, परन्तु उस व्यक्ति को पहुंचे ही नहीं तो उस पत्र का मूल्य कितना ? भगवान का नाम लें और भगवान के साथ अपना जुड़ाव न हो तो उस नाम-ग्रहण का मूल्य कितना? सोचें । आप यह न भूलें कि नाम आदि के द्वारा आखिर भगवान के साथ जुड़ाव करना है । [२३४ oooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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