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________________ गोद में बैठे हैं और परस्पर दोनों स्नेहपूर्वक देख रहे हैं । ऐसे शिल्प मिलते हैं और ऐसा ध्यान भी धरा जा सकता है। ध्यानविचार' ग्रन्थ देखें । शंखेश्वर में ऐसा चित्रपट्ट है । अन्य अनेक मन्दिरों में भी ऐसे चित्रपट्ट हैं । ये प्राचीन ध्यान-पद्धति के चिन्ह है । यदि राणकपुर की नक्काशी, शिल्प-कला देखोगे तो वहां आपको 'ध्यान-विचार' के ध्यान की श्रेणी मिलेगी । _ 'सिद्धचक्र पूजन' अनेक व्यक्तियों को नया लगता होगा, परन्तु मैं कहता हूं : जीर्णोद्धार होता है, परन्तु नया कौन निकाल सकता अभी जो हम देखते है ऐसा ही ताम्बे का सिद्धचक्र का यन्त्र 'ओसिया' में देखा था । ___ओसिया में मन्दिर में प्रदक्षिणा देते समय सिद्धचक्र यन्त्र का आधा भाग नजर में आया । विचार आया कि इसका शेष आधा भाग भी होना चाहिये । फिर आधा भाग भी मिल गया । लगभग २५०० वर्ष पुराना यह मन्दिर है । समस्त ओसवालों की उत्पत्ति वहीं हुई है। 'शान्ति-स्नात्र' ही प्राचीन है, सिद्धचक्र-पूजन प्राचीन नहीं है - यह कहने वालों को समुचित उत्तर दिया जा सके, वैसा यह प्रमाण मिल गया । प्राचीन समय में लोग ताम्बे के यंत्र पर 'सिद्धचक्र-पूजन' पढ़ाते होंगे । मैं ने फिर फलोदी में इसी यंत्र पर 'सिद्धचक्र-पूजन' पढ़ाने की प्रेरणा दी थी । ___ माता, एवं पुत्र का प्रेम मातृवलय में व्यक्त हो चुका है । पुत्र का प्रेम तथा माता का वात्सल्य दोनों हमारे भीतर उत्पन्न हों, वैसा ध्यान करने का उल्लेख है । चौबीस वलयों में से यह एक वलय है । * यहां सामर्थ्य योग की बात आई है। कर्मों का मूलोच्छेदन करने की शक्ति सामर्थ्य योग से ही आती है । ज्ञान आदि के लिए अभी तक अभ्यास करते हैं । वीर्योल्लास के लिए तनिक भी प्रयत्न नहीं करते । 'ज्ञानी श्वासोच्छ्वास मां' (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 0 0 0 0 0 0 २१७)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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