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________________ अभी तक गुरु का योग मिलता था, परन्तु ठगाई थी, गुरु के नाम पर अनेक ठग भी भटक गये । _ 'स्वर्ण दो, दुगुना कर दूंगा' ऐसी बावाजी की बातें सुनकर अनेक व्यक्ति ठगे गये हैं । पू. नवरत्नसागरसूरिजी : उन्होंने अपरिग्रह का पालन करा दिया न ? पूज्यश्री : है न गुणानुरागी ! - मुनि धुरन्धरविजयजी : तो फिर हत्या करके स्वर्ग में भेज दो न ? पूज्यश्री : पैसा गृहस्थों के लिए ग्यारहवां प्राण है । उन्हों ने त्याग नहीं किया । ऐसे गुरु देख कर ही किसी ने कहा होगा - _ 'कपटी गुरु लालची चेला; दोनों नरक में ठेलंठेला ।' इसीलिए ज्ञानी, क्रियावान, निःस्पृह आत्मानुभूति में रमण करने वाले गुरु ही स्वयं तरते हैं और दूसरों को तारते हैं । ऐसे गुरु में तारकता के दर्शन हों यह योगावंचकता है । ऐसे गुरु के दर्शन करने से पाप नष्ट होते हैं । दर्शन मात्र से कितना सारा आता है ? इसीलिए तो गोचरी-पानी वहोरते समय (भिक्षा ग्रहण करते समय) धर्मलाभ देते हैं न ? धर्मलाभ से बड़ा लाभ कौन सा है ? नहीं वहोराये (भिक्षा नहीं दे) तो भी धर्मलाभ देना, ऐसा अपने गुरुदेवों ने हमें सिखाया है । ऐसे गुरु हमारे भीतर विद्यमान वीरत्व (सिंहत्व) जागृत करते हैं । 'वीर जिनेश्वर चरणे लागू, वीरपणुं ते मांगू रे; मिथ्या मोह तिमिर भय भांग्युं, जीत नगारूं वाग्युं रे...' ऐसा वीरत्व हमें प्राप्त करना है । वीर से ही 'वीर्य' शब्द बना है। वीर्यशक्ति से ही प्रत्येक कार्य सिद्ध होता है। ज्ञान का अध्ययन करने के पश्चात् भी क्रिया आदि में आगे बढ़ने के लिए वीर्य-शक्ति आवश्यक हैं । पंचाचार की आराधना से ही वीर्याचार की शक्ति बढ़ती है । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ mmsmoonmomwwwwwwww0 १७७)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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