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________________ 'खमासमणाणं हत्थेणं' पूर्व महर्षि क्षमा-श्रमणों के हाथ में (मैं नहीं देता, मैं तो केवल वाहक हूं) मैं आपको दे रहा हूं' ऐसा कहा जाता है। ऐसी विचारधारा से भक्ति बढ़ेगी । भक्ति बढ़ेगी तो ही समग्र साधना का बगीचा महक उठेगा । भक्ति ही जल है जो आपके समस्त अनुष्ठानों को नव-पल्लवित करती है। * नमुत्थुणं का नाम भले 'शक्रस्तव' हो, परन्तु रचयिता इन्द्र नहीं है, गणधर ही रचयिता हैं । इन्द्र तो केवल बोलते हैं । इन्द्र की क्या शक्ति जो ऐसे सूत्रों का निर्माण कर सकें ? इन्द्र अवश्य सम्यग्-दृष्टि होते हैं । पूर्व भव का याद होता है, अतः वे 'नमुत्थुणं' बोल सकते हैं । उदाहरणार्थ - इस समय के सौधर्मेन्द्र पूर्व जन्म के कार्तिक सेठ (मुनिसुव्रत स्वामी के शासन में) हैं तो उन्हें नमुत्थुणं याद होगा ही । वैसे भी इन्द्र के पास अवधिज्ञान है ही । * 'नमोऽस्तु' का 'अस्तु' शब्द 'इच्छायोग' व्यक्त करता है । हरिभद्रसूरिजी स्वयं स्वीकार करते हैं कि मुझ में अभी तक 'शास्त्रयोग' नहीं आया । इच्छायोग से ही मैं भगवान को नमस्कार करता हूं - ___ 'नत्वेच्छायोगतोऽयोगं योगिगम्यं जिनेश्वरम् ।' - योगदृष्टि-समुच्चय इच्छायोग में इच्छा पूर्णतः पालन की होती है, परन्तु पालन अपूर्ण होता है, जबकि शास्त्रयोग में सम्पूर्ण पालन है। श्रद्धा एवं ज्ञान इतने तीव्र होते हैं कि जब जो करना हो तब वह याद आता ही है । परन्तु ऐसा शास्त्रयोग अत्यन्त दुर्लभ है । इच्छायोग भी आ जाये तो भी बड़ी बात है । पू. आनंदघनजी कहते हैं : 'सूत्र अनुसार विचारी बोलूं, सुगुरु तथाविध न मिले रे; क्रिया करी नवि साधी शकीए, ए विखवाद चित्त सघले रे ।' पूज्य उपा. यशोविजयजी कहते हैं - 'अवलम्ब्येच्छायोगं, पूर्णाचारासहिष्णवश्च वयम् । भक्त्या परममुनीनां, तदीयपदवीमनुसरामः ॥' - अध्यात्मसार (१७० ®®®®oooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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