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________________ हम जिस भूमिका पर हों वहां स्थिर रहकर आगे की भूमिका को प्राप्त करने का प्रयत्न करना ही चाहिये । यदि प्रयत्न नहीं करें तो जहां हैं वहां भी स्थिर नहीं रह सकते । किसी सीढ़ी पर बीच में खड़े रह कर देख लें, चलने वाले कहेंगे कि भाई ! आप बीच में क्यों खड़े हैं ? या तो नीचे जायें, अथवा ऊपर जायें । बीच में खड़े न रहें । हम भी बीच में खड़े नहीं रह सकते । ऊपर जाने का प्रयत्न नहीं करें तब अपने आप नीचे आ जाते हैं। __ आगे की भूमिका प्राप्त करने की इच्छा न हो तो विद्यमान भूमिका भी नहीं टिकेगी ।। * 'गुणवद्-बहुमानादे नित्यस्मृत्या च सक्रिया । जातं न पातयेद् भावमजातं जनयेदपि ॥' - ज्ञानसार गुणवान के बहुमान आदि से, नित्य स्मरण से शुभ क्रिया उत्पन्न भाव को जाने नहीं देती और नहीं उत्पन्न हुए भाव को उत्पन्न करती है। अतः गुणों की वृद्धि हेतु नित्य यह क्रिया करनी ही चाहिये । कतिपय साधक इसके लिए ही १२, ५०, १००, १००० लोगस्स के काउस्सग्ग तक पहुंचते हैं । 'मैं उच्च कक्षा में पहुंच गया हूं। मुझे किसी बाह्य क्रिया आदि की आवश्यकता नहीं है', यह मान कर कदापि क्रिया-काण्ड का त्याग न करें । एक समान भाव तो केवल केवली भगवान को ही रहता है । हम केवली भगवान बने नहीं हैं । (हाथ लगने से पुस्तक गिर गई) देखा ? तनिक ध्यान नहीं रखने पर यह पुस्तक कैसी गिर गई ? हमारे भाव इस प्रकार के हैं । अतः सतत सावधानी की आवश्यकता है। प्रारम्भ में गुरु आपको प्रेरणा देते हैं । तत्पश्चात् गुरु के द्वारा प्राप्त विवेक आपको निरन्तर प्रेरणा देता ही रहता है । आपके भीतर उत्पन्न विवेक ही आपका गुरु बन सकता है। (१४२ moonommommmmmmmmmmon कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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