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________________ चन्दा न नया मंदिर ट्रस्ट,मदास 1GBROSES पदवी प्रसंग, वि.सं. २०५२, माघ सु. १३ ४-८-२०००, शुक्रवार सावन शुक्ला -५ * किसी आशंसा से किया जाये तो हमारा अनुष्ठान विष अथवा गरल बनेगा, गतानुगतिक से करेंगे तो अनुष्ठान बनेगा, भगवान की आज्ञा सामने रख कर करेंगे तो तद्धेतु बनेगा और तन्मय बन कर करेंगे तो अमृतानुष्ठान बनेगा । _ अनुष्ठान तो करते ही है, परन्तु वह अनुष्ठान कैसा बनाना है ? यह अनुष्ठान विष भी बन सकता है और अमृत भी बन सकता है । हमें कैसा बनाना है ? * 'नमुत्थुणं' में पहली स्तोतव्य सम्पदा है। स्तोतव्य अरिहंत है । यहां कहा - नमोऽस्तु । नमस्कार हो । _ नमोऽस्तु में भी रहस्य है। रहस्य-दर्शियों को ही यह समझ में आता है । नमस्कार अभी तक हुआ नहीं है, इसीलिए मैं कहता हूं - नमस्कार हो ! मैं तो मूढ़ हूं। अज्ञानी हूं। मैं नमस्कार करने वाला कौन हूं ? नमस्कार करने की मुझ में कौन सी शक्ति हैं ? * हम द्रव्य-प्राण की तो चिन्ता करते हैं, परन्तु क्या हमें भाव-प्राण की चिन्ता है ? द्रव्य-प्राण भी आखिर भाव-प्राण के (१३४ 0666666666666600 6600 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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