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________________ कल्याण की परम्परा गुरु के द्वारा ही चलती है । पुण्य गुरु के बहुमान के द्वारा ही बढ़ता है । गुरु आपको भगवान के साथ जोड़ देता है । भगवान के साथ जुड़ते ही आपकी कल्याण-परम्परा अखण्ड बन जाती है । जितने तीर्थंकरो ने पूर्व के तीसरे भव में तीर्थंकर नाम-कर्म की निकाचना की है, उन सबने गुरु का आलम्बन लिया है । भगवान महावीर स्वामी के समय में ही देखिये न । नौ जने तीर्थंकर पद के लिए योग्य घोषित हुए । जो गुरु मिले हैं, उनकी सेवा करें। उनकी योग्यता देखने का प्रयत्न न करें। यह आपका काम नहीं है । कदाचित् योग्यता कम होगी, ज्ञान कम होगा तो भी आपको कोई आपत्ति नहीं है। आप उनसे अधिक ज्ञानी और अधिक योग्य बन सकेंगे । उपाध्याय यशोविजयजी इसके उत्तम उदाहरण हैं ।। गुरु-तत्त्व विनिश्चय में तो 'महानिशीथ' का पाठ देकर स्पष्ट लिखा है कि भगवान के विरह में गुरु ही भगवान हैं, गुरु ही सर्वस्व हैं। गुरु चंडरुद्राचार्य क्रोधी थे, फिर भी क्षमाशील शिष्य ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । गौतमस्वामी के पास केवलज्ञान नहीं था, फिर भी पचास हजार शिष्यों ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । यह गुरु-तत्त्व का प्रभाव है। यहां व्यक्ति गौण है, तत्त्व मुख्य हैं । व्यक्ति में अयोग्यता हो तो भी स्थायी रूप से थोडे ही रहती है ? स्वर्ण के कटोरे में मदिरा भरी हुई हो तो भी स्वर्ण स्वर्ण ही है । मदिरा स्थायी थोड़ी ही रहने वाली है ? आप में योग्यता होगी तो आप गुरु के पास प्राप्त कर ही लेंगे । प्रश्न यह नहीं है कि गुरु कैसे हैं ? प्रश्न यह है कि आप कैसे हैं ? आपका समर्पण कैसा है ? * व्याख्या का सातवां अंग है - 'अल्प भव' । दीर्घ संसार वाला आत्मा इस ग्रन्थ के लिए सर्वथा अयोग्य है। चरम पुद्गलावर्त में भी द्विबंधक, सकृबंधक अथवा अपुनर्बंधक जीव ही इसके लिए योग्य है, दूसरे नहीं । (१३२ wwwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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