SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * आगमों आदि को पढ़ने में तो नया-नया आने से फिर भी रस आता है, परन्तु दैनिक किये जाने वाले चैत्यवन्दन आदि में प्रायः रस नहीं आता । हरिभद्रसूरिजी के समय में भी कदाचित् ऐसी स्थिति होगी, अतः उनकी 'ललित विस्तरा' लिखने की इच्छा हो गई होगी । * उपमिति, समराइच्च, वैराग्य कल्पलता आदि पढ़ने से भी वैराग्य उत्पन्न नहीं हो तो समझें कि यह जीव दुर्भव्य अथवा अभव्य होगा । अनन्त भव नहीं करने हों तो इस भव में तनिक सहन कर लें । तनिक साधना कर लें तो काम हो जाये । वयोवृद्ध महात्मा इसीलिए पहले वैराग्यकारक ग्रन्थ कण्ठस्थ कराकर फिर व्याकरण आदि में प्रवेश कराते थे । * हम तो अमुक वर्षों में चले जायेंगे परन्तु ये आगम स्थायी रहेंगे । हजारों वर्षों तक इनके आधार पर ही शासन चलेगा । इन आगमों की हम उपेक्षा नहीं कर सकते । भावी पीढ़ी की उपेक्षा नहीं की जा सकती । जैन श्रावक अपनी सन्तान की चिन्ता करता है कि कहीं मेरा पुत्र दुर्गति में न जाये । हमारे यहां एक बात आती है न ? किसी भी तरह से धर्म-क्रिया नहीं करने वाले अपने पुत्र को धार्मिक बनाने के लिए उसके पिता ने चौखट की साख पर भगवान की मूर्ति बिठाई, द्वार छोटा कराया ।। भले ही वह पुत्र मृत्यु के पश्चात् मछली बना परन्तु बाद में तो ठिकाना पड़ा न ? वहां से मर कर आठवे देवलोक में गया न ? श्रावक चिन्ता करे तो क्या हमें अपनी भावी पीढ़ी की चिन्ता नहीं करनी ? यह सब बात मैं कोमलता से करता हूं। ठिकाना पड़ेगा न ? या ओर अधिक कठोर भाषा की आवश्यकता पड़ेगी ? 'लातों के देव बातों से नहीं मानते' ऐसा तो नहीं है न ? युगलिक काल में तो केवल हकार, मकार, धिक्कार से कार्य हो जाता था । परन्तु ज्यों ज्यों पतनोन्मुख काल आया, त्यों त्यों अधिक शिक्षा की आवश्यकता पड़ने लगी । (कहे कलापूर्णसूरि - ३wwwwwwwwwwwwwwwwwww ११७)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy