SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * जिसका संसार दीर्घ हो, वह इस वाचना के योग्य नहीं है । उसके जीवन से उसका पता लगता है। संवेग-निर्वेद आदि से इसका ख्याल आता है । श्रोता में भव-भ्रमण का भय होना चाहिये । निगोद में तो अनन्त काल निकाला ही है। वहां से निकलने से पश्चात् भी अनन्त भव किये हैं - ऐसे विचारों से वैराग्य आता हो उसका अल्प संसार समझें । . तो ही आप संसार से छूटने का पुरुषार्थ करो । जो ऐसा पुरुषार्थ करते हैं, उन्हें ही भगवान की कृपा प्राप्त होती है । ऐसा पुरुषार्थ करने की इच्छा हो उसमें भी भगवान की कृपा समझें । पू. पंन्यासश्री कीर्त्तिचन्द्रविजयजी महाराज के द्वारा आपश्रीजी की सम्पादित पुस्तकें 'कहे कलापूर्णसूरि' एवं 'कहा कलापूर्णसूरिने' दोनों प्राप्त हो गई हैं । ___दोनों पुस्तकों में वाचनाओं का उत्तम संग्रह किया गया है। सचमुच ! अनुभव की खान ऐसी सूरि 'कलापूर्ण' की वाणी है। भक्तियोग - परमात्मा के प्रति अनन्य श्रद्धा के प्रतीक पुस्तकों में यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होते हैं । पूज्य आचार्य देवेशश्रीजीने जीवन में उच्च प्रकार की साधना आत्मसात् की है । इस प्रकार पूज्यों ने भी पूज्यश्री की वाणी को अनेक भाविकों तक पहुंचाने के लिए पुस्तकों के द्वारा सुन्दर प्रयास किया है । - साध्वीश्री चन्दनबालाश्री अहमदावाद (कहे कलापूर्णसूरि - ३00000000000000000000८९)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy