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________________ शाला भचाऊ अंजनशलाका प्रसंग, वि.सं. २०५५ १२-३-२०००, रविवार फाल्गुन शुक्ला - ७ : राधनपुर जीवन विनय प्रधान होना चाहिये । विनय के बिना विद्या, विवेक, विरति आदि कुछ भी प्राप्त नहीं होता । केवल धर्म में ही नहीं, अन्य क्षेत्रों में भी विनय आवश्यक है । व्यवहार में भी अनुशासन से ही सफलता प्राप्त होती है । आज्ञा नहीं मानने वाले नौकर को क्या कोई शेठ रखेगा ? क्या अविनयी, उद्धत एवं आज्ञा का उल्लंघन करने वाला सैनिक चलेगा ? अविनीत को कदाचित् विद्या प्राप्त भी हो जाये, लेकिन फलेगी नहीं । अविनीत में रहे हुए समस्त गुण, दोष ही माने जायेंगे और विनीत के दोष भी गुण रूप गिने जायेंगे । शान्ति, समाधि एवं सिद्धि तक पहुंचने के लिए विनयी बनें, गुरु नहीं शिष्य बनें । शिष्य बनना ही कठिन है ग्रन्थ में जोशपूर्वक कही गई है । यह बात इस गौतम स्वामी को इस कारण ही पचास हजार शिष्य प्राप्त हुए थे । वे परम विनयी थे । अविनयी की विद्या कदापि गुणकारी नहीं होती । गुरु का पराभव नहीं, परन्तु उनके पराभव के विचार से भी उसे विद्या नहीं कहे कलापूर्णसूरि- २ ३५ -
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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