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________________ मेरा यह कैसा स्वभाव है ? मेरे कारण से मेरे पिता महाराज कैसे परेशान होते हैं ?' "प्रभु ! मैंने घोर आशातना की । अब मुझे छ: माह का अवसर प्रदान करें ।" बाल-मुनि के पिता-मुनि को यह कहने पर अन्त में वे एक गच्छ में रहे । बाद में उनमें विनय आया, उनका स्वभाव बदल गया, उन्हें स्व-गच्छ में प्रविष्ट किया गया । छः स्थानों में छः आवश्यक १. आत्मा है - प्रत्याख्यान - जो मेरा नहीं है उसका त्याग । पच्चक्खाण तब ही लिया जाता है, जब शेष बची हुई वस्तु (आत्मा) की श्रद्धा हो । २. आत्मा नित्य है - कायोत्सर्ग - काया के उत्सर्ग (त्याग) के बाद जो बचता है, वह नित्य है । ३. आत्मा कर्म का कर्ता है - प्रतिक्रमण - पाप से पीछे हटना । स्वयं किये हुए कर्म भोगने ही पड़ते हैं । अतः स्वयं को ही प्रतिक्रमण के द्वारा पाप से पीछे हटना पड़ता है । ४. आत्मा कर्म का भोक्ता है - गुरु वन्दन - जिस प्रकार गुरु भगवन्त अपने स्वरूप के भोक्ता हैं, उस प्रकार वही वन्दना वन्दन कर्ता को स्वरूप का भोक्तापन देती हैं, अथवा गुरु वन्दन कर्म के भोग से मुक्ति प्रदान करता है । ५. मोक्ष है - चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स) - सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु = सिद्ध भगवान मुझे मोक्ष प्रदान करें। सिद्ध को नमस्कार तब ही हो सकता है यदि मोक्ष हो । ६. मोक्ष का उपाय है - सामायिक = समता ! समता से कर्मों का क्षय, कर्म-क्षय से निर्जरा । निर्जरा से मोक्ष । समता मोक्ष का उपाय है । (३४ 6600 6600 660 Homs so 65 666 कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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