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________________ RSTANDIT अग्नि में विलीन होता हुआ पूज्यश्री का पार्थिव देह व अंतिम दर्शनार्थ लोगों की भीड़, शंखेश्वर, वि.सं. २०५८ १२-७-२०००, बुधवार आषाढ़ शुक्ला-११ : पालीताणा * प्रायश्चित्त ग्रन्थों को संक्षिप्त करके जिनभद्रगणि ने 'जीतकल्प' बनाया । द्रव्य आदि के ज्ञाता वे महापुरुष थे । सूत्रों को संक्षिप्त करने के साथ उन्हों ने प्रायश्चित्तों को भी संक्षिप्त किया। शिष्य तो गुरु से आलोचना ले लें, परन्तु गुरु को आलोचना कहां लेनी ? स्वगुरु न हों तो स्वयं से ज्येष्ठ-वयस्क विद्यमान हों उनके पास लेनी चाहिये । वे भी न हों तो छोटे के पास ले लेनी परन्तु स्वयं नहीं लेनी चाहिये । वैद्य कदापि अपनी औषधि स्वयं नहीं लेता । यहां भी ऐसा है । इस तरह प्रायश्चित्त से शुद्ध होने पर सद्गति होती है । सद्गति का आधार वेष अथवा बाह्याचार नहीं, परन्तु आन्तरपरिणाम है। शुभ ध्यान से सद्गति ! अशुभ ध्यान से दुर्गति ! * श्रावक कुल में जन्म प्राप्त करनेवाले माता-पिता अर्थात् सन्तानों के सच्चे अर्थ में कल्याण-मित्र ! अपनी सन्तान को वे कदापि दुर्गति में नहीं जाने देंगे । सन्तानों के ही क्यों ? साधुओं (५०६ 80swwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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