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________________ चउविसत्थो अर्थात् भगवान के गुणगान । भगवान के गुणगान हो सकें, इसीलिए तो सात बार चैत्यवन्दन का विधान है । श्रावकों के लिए भी पांच अथवा सात चैत्यवन्दन का विधान है । तीसरा आवश्यक है वांदणा... गुरु वन्दना । गुरु को वन्दन करने से ज्ञान की वृद्धि होती है । बगीचा अथवा खेत पानी के बिना हरे-भरे नहीं बनते । हमारे जीवन की बगिया में भी ज्ञान का पानी न आये तो वह हरीभरी नहीं बनती । यह ज्ञान गुरु के द्वारा प्राप्त होता है । ज्ञान बढ़ने पर विहित अनुष्ठानों के प्रति श्रद्धा अत्यन्त बढ़ जाती है । अज्ञातात् ज्ञाते वस्तुनि अनन्त गुणा श्रद्धा जायते । ज्ञान विनय से आता है और विनय से परिणमित होता है । गणधर पद प्राप्त किये हुए, चार ज्ञान के स्वामी, द्वादशांगी की अन्तर्मुहूर्त में रचना करने वाले गौतम स्वामी को आप याद करें, 'विनय' क्या वस्तु है, वह आपको समझ में आयेगी । सब पढ़ने के पश्चात् भी विनय छोड़नी नहीं है, इस प्रकार गौतम स्वामी की मुद्रा आपको कहेगी । भीलड़ीयाजी तीर्थ में गौतम स्वामी की एक प्रतिमा देखी । भगवान के पास उत्कटिक आसनपूर्वक हाथ जोड़कर बैठी उस प्रतिमा को देखकर गौतम स्वामी के विनय पर अहोभाव आये बिना नहीं रहेगा । चौथा आवश्यक है प्रतिक्रमण | प्रतिक्रमण अर्थात् पाप से पीछे हटना । पांचवा आवश्यक है कायोत्सर्ग । कायोत्सर्ग से थोडे - बहुत पाप रह गये हों वे टूट जायें । छठा है 1 - पच्चक्खाण । पच्चक्खाण से पापों के अनुबंध भी टूट जाते हैं । पच्चक्खाण सदा अनागत (भविष्य) विषयक ही होते हैं - 'अणागयं पच्चक्खामि ।' भावी का प्रत्याख्यान अपने अशुभ अनुबंधों को अवश्य तोड़ता है । H - - कहे कलापूर्णसूरि २www कळ ४५७
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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