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________________ गई है। 'अभिथुआ' का यही अर्थ होता है। चर्म-चक्षु से भले ही प्रत्यक्ष न हों, परन्तु मानस-चक्षु से, शास्त्र-चक्षु से भगवान साक्षात् हैं । यह कल्पना नहीं है, सत्य हैं; क्योंकि प्रभु सब में हैं, सर्वत्र हैं, सर्वदा हैं । प्रभु को कोई प्रतिबन्ध नहीं है। इस प्रकार भगवान निरन्तर उपकार करते ही रहते हैं । टेलिफोन करने से पूर्व आप उस व्यक्ति के नम्बर जोड़ते हैं और फिर आप उसके साथ बात करते हैं । भगवान का नाम भगवान का नम्बर है । भगवान का नाम लो तो सम्पर्क होता ही है। वहां सम्बन्ध जोड़ने वाला तार है। यहां प्रेम का तंतु चाहिये, तो भगवान के साथ जुड़ाव होगा ही। फोन में तो वह व्यक्ति फोन उठाये तो ही बात हो सकती है, परन्तु यहां तो भगवान सर्वज्ञ है । हम जहां प्रभुमय बने, उसी समय अपना भगवान के साथ जुड़ाव हो ही गया । उनके केवल ज्ञान के दर्पण में सब संक्रान्त हो चुका है। केवलज्ञान के दर्पण में सम्पूर्ण विश्व संक्रान्त हो तो हम, हमारे हृदय के भाव संक्रान्त न हो यह कैसे हो सकता है ? इन्द्र महाराजा कहते हैं - "भगवन् ! वहां स्थित आप, यहां स्थित मुझे देखें ।" भगवान तो देखते ही हैं, परन्तु ऐसा कहने से कहने वाले का उपयोग प्रभुमय बनता है । * भक्त को सदा लगता है - बोधि एवं समाधि सबको मिले, क्योंकि मेरे भगवान का ऐसा मनोरथ था । भगवान का मनोरथ सिद्ध हो, ऐसा कौन सा भक्त नहीं चाहता ? * द्वादशांगी अर्थात् रत्न-करंडक, गणिपिटक । इन आगमों के टोकरे में, इस पेटी में सम्पूर्ण मोक्ष-मार्ग है। इन आगमों को पढ़ने-पढ़ाने से, तदनुसार जीवन जीने से प्रभु के मार्ग को आगे चलाने में हम निमित्त बनते हैं । आगमों के अनुसार जीवन जीने से ही सच्ची परम्परा चलती है । इसी लिए ज्ञानी एवं क्रियावान ही स्वयं तरते हैं और दूसरों को तारते हैं, ऐसा कहा है । * समुद्र चाहे जितना भयंकर हो अथवा चाहे जितना बड़ा हो, परन्तु मजबूत स्टीमर में बैठनेवाले को भय नहीं होता कि मैं (४४२ Wwwwowomooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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