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________________ करने में इतने उदार कि आगन्तुक की भक्ति करने में कुछ भी बाकी नहीं रखते । शीतकाल में तो काजू, बादाम, पिस्ता मुढे भर कर देते । इस कारण से उनका पुन्य भी ऐसा कि उस युग में भी लाखों रुपये कमाते थे । * वि. संवत् २०४२ में जयपुर में एक भाई आया । मैंने उसे नवकार की प्रतिज्ञा देने की बात कही तो वह कहने लगा - 'महाराज ! नवकार गिनने से क्या लाभ ? रोटी-रोटी बोलने से क्या पेट भर जायेगा ? अरिहंत-अरिहंत बोलने से क्या मोक्ष हो जायेगा ? मुझे बात नहीं बैठती ।" __ मैंने उसे आधे घंटे तक समझाया, परन्तु वह मानने को तैयार ही नहीं हुआ । मैंने अन्त में कहा, "ठीक है, आपकी जैसी इच्छा । आपको सद्बुद्धि मिले, मैं तो भगवान से यही प्रार्थना करता रहूंगा । लो, यह वासक्षेप ।" वह भाई वासक्षेप लेकर चला गया । मुझे विचार आया - यह बिचारा नवकार की निन्दा करके कितने कर्म बांधेगा ? बाजार में जाकर वे सायंकाल में पुनः आकर कहने लगा, 'गुरुदेव ! प्रतिज्ञा दे दीजिये । मेरी भूल थी । भगवान का नाम लिये बिना किसी का आत्म-कल्याण नहीं हो सकता ।" उसने एक माला गिनने की शपथ मांगकर ली । मुझे सन्तोष हुआ । * भगवान का नाम बहुमानपूर्वक लेना प्रारम्भ करें ताकि पाप अपने बिस्तर-पोटले लेकर भाग जायेंगे । सूर्य की किरणों से अंधकार भागता ही है । प्रभु के नाम से पाप भागता ही है । "त्वत्संस्तवेन भवसन्तति" - भक्तामर सम्पूर्ण लोगस्स भगवान के नाम से भरा हुआ है। चौबीसों भगवान की नामपूर्वक की स्तुति की स्वयं गणधरों ने रचना की है, जिसमें भगवान के पास आरोग्य, बोधि एवं समाधि की मांग की गई है। तदुपरान्त चौबीसों भगवान सामने ही हैं - यह मानकर स्तुति की (कहे कलापूर्णसूरि - २00000000000 0 0000 ४४१)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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