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________________ उद्विग्न या हताश बनना चाहिये ? मुझे तो यही विचारना चाहिये कि मेरी स्वयं की कमी है। अहिंसा की सिद्धि यदि मुझ में हो चुकी हो तो मेरे पास आने वाला जीव क्यों उपशान्त न बने ? यदि उपशान्त न बने तो समझना चाहिये कि मेरी अहिंसा में कमी है। दूसरे की कमी क्यों देखें ? मेरी ही कमी देख कर समाधि क्यों न रखू ? यह मेरा दृष्टिकोण है । हमें ऐसा दृष्टिकोण पकड़ना चाहिये जिससे अपनी शान्ति नष्ट न हो । * अपने लिए क्षान्ति, मृदुता, ऋजुता एवं मुक्ति इन चारों का सेवन करना चाहिये । अन्य जीवों के साथ मैत्री आदि चार भावनाओं का सेवन करना चाहिये । क्षान्ति आदि स्व-सम्बन्धी हैं, मैत्री आदि पर सम्बन्धी हैं ।। * पू.पं. भद्रंकरविजयजी महाराज अनेक बार कहते, 'लो, ये सुवाक्य डायरी में लिख लो ।' __ उस समय सामान्य लगने वाले अनेक सुवाक्य, श्लोक आज अमूल्य खजाना प्रतीत होता है । उन्हों ने एक श्लोक दिया था, 'शोभा नराणां, प्रिय सत्यवाणी ।' इस श्लोक पर वांकी में नौ दिनों तक व्याख्यान चले थे । चार माताएं, नवपद आदि अनेक पदार्थ उनमें से निकले थे । * बचपन में हम जो नवकार, पंचिदिय, इच्छकार, लोगस्स आदि सीखे थे वे व्यर्थ नहीं समझें । अत्यन्त रहस्यमय हैं ये सूत्र ! नवकार में आये पंच परमेष्ठियों का ही इस सूत्रों में विस्तार लोगस्स 'नमो अरिहंताणं' एवं 'नमो सिद्धाणं' का ही विस्तार है । 'पंचिंदिय' 'नमो आयरियाणं' का विस्तार है। 'इच्छकार सुहराई' 'नमो उवज्झायाणं' एवं 'नमो लोए सव्वसाहूणं' का विस्तार है । * मोह का कार्य जगत् के जीवों को अपवित्र बनाना है। कहे कलापूर्णसूरि - २0050mmonsoom ३८५)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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