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________________ आप यह भूल न जाये, इसीलिए 'ज्ञानसार' के प्रथम अष्टक में पूर्णता पर लिखा है । शेष ३१ अष्टक पूर्णता प्राप्त करने के लिए मार्गदर्शक है । * आपका मन चारों ‘भावनाओ' में से कभी भी न हटे, इतना कर लो तो समझो कार्य हो गया । आपका प्रत्येक विचार मैत्री, प्रमोद आदि भावना-मूलक ही होना चाहिये । उससे हटकर नहीं होना चाहिये । आप शायद परिषह-उपसर्ग सहन नहीं कर सके, परन्तु क्या इतना भी नहीं कर सकोगे ? नयों की अपेक्षा से प्रभु-दर्शन नैगम नय - मन, वचन, काया की चंचलता पूर्वक सिर्फ आपकी आंखों ने प्रभु-प्रतिमा देखी? तो भी मैं कहूंगा कि आपने प्रभु-दर्शन किये । संग्रह नय - यदि आपको समस्त जीव सिद्ध भगवंतों के स्वधर्मी बन्धु प्रतीत हों तो ही मैं सच्चे दर्शन मानूंगा । व्यवहार नय - आशातना-रहित, वन्दन-नमस्कार सहित यदि आप प्रभु की मुद्रा देखेंगे, तो ही मैं दर्शन मानूंगा । ऋजुसूत्र नय - स्थिरता एवं उपयोगपूर्वक किये गये दर्शन को ही मैं 'दर्शन' के रूप में मान्य करता हूं। शब्द नय - प्रभु के अनन्त ऐश्वर्य को देखकर अपनी आत्मसम्पत्ति प्रकट करने की इच्छा हुई हो तो ही मैं सच्चे 'दर्शन' मानूंगा। समभिरूढ नय - आप केवलज्ञानी बनने पर ही सच्चे 'दर्शन' कर सकेंगे - मैं यह मानता हूं। एवंभूत नय - आप सिद्ध परमात्मा बनने पर ही वास्तविक 'दर्शन' कर सकेंगे, ऐसी मेरी मान्यता है । ___ - पू.आ.श्री विजयकलापूर्णसूरिजी द्वारा लिखित ___ 'मिले मन भीतर भगवान' पुस्तक के आधार पर (कहे कलापूर्णसूरि - २00000008mowwwwwwww५)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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