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________________ तो हम असफल ही होंगे । शायद इसीलिए कोई देव नहीं आता । परन्तु उसके अलावा शक्य अनुष्ठान भी क्या हम करते हैं ? * विवेक दीपक है । उजाले में हमारा पांव खड्डे में गिरता ही नहीं । जिसमें विवेक का जागरण हो वह उल्टे मार्ग पर जा ही नहीं सकता । * हमारे निमित्त दूसरे को अप्रीति न हो, ऐसे व्यवहार को ही औचित्य कहते हैं । भगवान ने उस कुलपति की झौंपड़ी का तुरन्त ही परित्याग कर लिया था, क्योंकि किसी को अप्रीति न हो । 'ऐसा बोल कि कोई न कहे झूठ । ऐसा बैठ कि कोई न कहे ऊठ ॥ पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. कहते 'मार्ग में निर्जीव स्थंडिल भूमि पर बैठने की अपेक्षा हरी वनस्पति वाले स्थान पर बैठना उत्तम है । हमारे निमित्त किसी को अप्रीति हो, शासन की अपकीर्त्ति हो, इस के समान अन्य कोई पाप नहीं है । * 'भगवन् ! जब तक आप मेरे पास रहते हैं तब तक दुर्बुद्धि मेरे निकट ही नहीं आती, परन्तु जैसे ही मैं आप से दूर होता हूं, वैसे ही दुर्बुद्धि का आक्रमण शुरू हो जाता है । क्या आप मुझे एक परिचारिका नहीं दे सकते जो सदा मेरी संभाल करती रहे ?' - गुरु ने कहा, 'चौबीसों घण्टे तो मैं तुम्हारे पास नहीं रह सकता, परन्तु सुबुद्धि नामक परिचारिका मैं तुम्हारी सेवा में लगाता हूं । तुम्हें सदा उसकी बात माननी पड़ेगी ।' गुरु ने 'सुबुद्धि' नामक परिचारिका भेजी । काश ! वह सुबुद्धि हमें मिल जाये । * भवन-निर्माण से पूर्व 'प्लान' बनाना पड़ता है, फिर ही भवन व्यवस्थित बन पायेगा । हमारे मुनि-जीवन का प्लान क्या ? पूर्णता प्राप्त करना । पूर्णता ही आपका लक्ष्य है न ? वही आपका 'प्लान' है न ? ४ कळळ 0000 कहे कलापूर्णसूरि २
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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