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________________ ध्याय = सूत्रार्थ का ध्यान-चिन्तन करें वे । * उपाध्याय भगवन् 'जगबंधव-जगभ्राता' हैं । बन्धु की अपेक्षा भाई विशेष है। संकट के समय दूसरे सब हट जाते है, तब भी भाई पास रहता है। उपाध्याय भगवन् जगत् के बन्धु ही नहीं है, भाई (भ्राता) भी हैं । साधु पद * गोचरी में इच्छानुसार वस्तु मंगवाते हैं न ? यहां तो सभी गुण चाहने योग्य (प्रिय) हैं । एक भी गुण छोड़ देने योग्य नहीं है । मैं यहीं परोस रहा हूं । आप वह गुण लोगे न ? * साधु भगवन् में दया एवं दम प्रबल होते हैं । अपने निमित्त से किसी भी जीव को कुछ भी पीड़ा हो जाये तो उनका हृदय पिघल जाता है । ऐसे हृदय में ही दया उत्पन्न होती है । दया का पालन अजितेन्द्रिय नहीं कर सकता, अतः बाद का गुण है 'दम' । * शक्कर का एक भी दाना ऐसा नहीं होता, जिसमें मधुरता न हो । उस प्रकार एक भी साधु ऐसा नहीं होता, जिसमें समिति - गुप्ति न हों । समिति-गुप्ति न हों तो समझें कि हम साधु नहीं हैं । मधुरता (मिठास) न हो तो समझें कि यह शक्कर का दाना नहीं है, नमक का दाना हो सकता है ।। हमें ऐसे साधु बनना है । यदि ऐसे साधु नहीं बने हैं तो अपनी आत्मा को उस प्रकार शिक्षा देनी है । शुद्ध दया के पालनार्थ तो हमने साधुत्व स्वीकार किया है। यदि दया ही हमारे हृदय में न हो तो साधुत्व कहां रहा ? प्रत्येक प्रवृत्ति करने से पूर्व सोचो कि मैं समिति-गुप्ति का खण्डन तो नहीं कर रहा हूं न ? मैं दया-धर्म से च्युत नहीं हो रहा न ? * समिति के पालन में कमी हो तो गुप्ति का पालन सम्यग् प्रकार से नहीं हो सकता । मेरे पास अनेक व्यक्ति आते हैं और कहते हैं कि हमें मौन की प्रतिज्ञा दीजिये ।' किस की प्रतिज्ञा ? केवल मौन रहना ? मौन रहकर करोगे क्या ? अबोला रखने वाले भी मौन होते हैं । केवल मौन का कहे कलापूर्णसूरि - २00mmswwwwwwwwwwwwws १५३)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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