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प्रश्न - अरिहंत को प्राप्त करने की प्रक्रिया क्या है ?
उत्तर - दूसरी प्रक्रिया की बात बाद में करेंगे, परन्तु मुख्य बात है - अरिहंत पर प्रेम प्रकट करो । प्रभु मिलेंगे तो प्रेम से ही मिलेंगे । यदि प्रेम नहीं होगा तो किसी प्रक्रिया से कार्य नहीं होगा । देखिये - पूज्य उपाध्याय, यशोविजयजी का कथन है -
___ "प्रगट्यो पूरण राग मेरे प्रभु शुं ।" "अक्षय-पद दिये प्रेम जे, प्रभुनुं ते अनुभव रूप रे..."
प्रभु का प्रेम अर्थात् उनके गुणों के प्रति प्रेम... और आगे बढकर कहें तो अपनी ही आत्मा के गुणों का प्रेम !
प्रेमी का पत्र, अक्षर या नाम सुनकर या पढ़कर दूसरा प्रेमी कितना प्रसन्न होता है ? उसी प्रकार से प्रभु का नाम, आगम
आदि को श्रवण करते ही यदि आप प्रसन्न हो जाते हो तो आप ध्यान के अधिकारी है, अरिहंत के कृपा-पात्र हैं ।
यदि आप प्रभु के साथ प्रेम करना चाहो तो पूज्य यशोविजयजी, पूज्य देवचन्द्रजी, पूज्य आनंदघनजी की चौबीसियों तथा पूज्य मानविजयजी की भी चौबीसी कण्ठस्थ करें । पद्म-रूपविजयजी भी इसी परम्परा के हैं । पूज्य वीरविजयजी की कृति भी हृदयंगम है । जिसको रुचि हो उसे कहीं से प्राप्त हो ही जायेगी ।
मुझे तो इन नवपदों की ढालों में से अभी भी प्राप्त हो रहा है। मुझे लगता है कि आपके माध्यम से भगवान मानो मुझे ही प्रदान कर रहे हैं ।
* स्तवन तो प्रभु के साथ करने की बातें हैं । प्रभु के साथ प्रेम होने के बाद ही आपको यह महसूस होगा । एक स्तवनों की पुस्तक का नाम "प्रभु के साथ एकान्त में करने की बातें" रखा गया था । यह नाम आपको विचित्र प्रतीत होगा, परन्तु सत्य है । स्तवन प्रभु के साथ करने की बातें ही है ।
* जिस व्यक्ति को आत्मा का सच्चे अर्थ में अनुभव हुआ हो, वह कदापि प्रभु का विरोधी नहीं हो सकता । उसे क्रियाकाण्ड आदि अनावश्यक नहीं प्रतीत होता । कोलेज का विद्यार्थी बालपोथी या पहली और दूसरी का विरोधी नहीं होगा । (१२२ 00000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - २)